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“नबाबी काल में हिंदू महिलओं पर हुए अत्याचारों का दर्पण है”
"प्रो. (डॉ.) पुष्पा"
“निस्वार्थी नबाबो की नाइंसाफी (भाग-01): कलानौर का कौला पूजन”
श्री अशोक कुमार जाखड़ हिंदी और हरियाणवी भाषा के प्रतिष्ठित कवि हैं, जो वर्षों से हरियाणा की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चेतना को समर्पित भाव से काव्य-साधना में रत हैं। वे न केवल हरियाणवी लोकसंस्कृति को सशक्त स्वर प्रदान करते हैं, बल्कि ग्रामीण परिवेश की जड़ों से जुड़े होने के कारण उनके काव्य में मिट्टी की सोंधी गंध और जनजीवन की सच्चाई झलकती है। सी.आई.एस.एफ. से सेवानिवृत्त होने के बाद भी वे साहित्यिक सेवा में निरंतर संलग्न हैं।
“निस्वार्थी नबाबों की नाइंसाफी–भाग 01: कलानौर का कौला पूजन” उनकी चौदहवीं एकल काव्य-पुस्तक है, जो ऐतिहासिक घटनाओं के आलोक में सामाजिक बुराइयों पर करारी चोट करती है। यह पुस्तक केवल साहित्यिक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि इतिहास के एक लुप्तप्राय अध्याय को उजागर करने का साहसिक प्रयास है।
पुस्तक में वर्णित “कौला पूजन” एक घृणित प्रथा थी, जो मुगलकाल में कलानौर के नवाब मुराद अली द्वारा चलाई गई। यह नवाब, जो मूलतः एक हिंदू राजपूत वंशज था, अपने निजी स्वार्थों के लिए इस्लाम धर्म स्वीकार कर नवाब बन बैठा और नबाब की पदवी पाते ही उसने हिंदू बेटियों पर अत्याचार करने हेतु “कौला पूजन” जैसी अमानवीय प्रथा को आरंभ किया। प्रारंभ में यह कुकृत्य उसकी जागीर तक सीमित था, लेकिन कालांतर में इसके सिपाही जागीर से बाहर भी आस पास में हिंदू लडकियो के डोले को जबरन उठा ले जाने लगे।
इस अमानवीय प्रथा के विरोध की मशाल बनी समाकौर, जो डबरपुर, सोनीपत के जाट परिवार की बेटी थी। जब नवाब के सिपाहियों ने उसका डोला रोहतक के पास रोका, तो उसने साहसपूर्वक विरोध किया और उनको धोखा देकर भागकर अपने पिता के पास लौट आई। प्रारंभ में पिता ने क्रोध में पुत्री को त्याज्य मानने का संकेत दिया, किंतु समाकौर ने सच्चाई बताकर कहा – "जब तक कौला पूजन प्रथा समाप्त नहीं होती, मैं ससुराल नहीं जाऊंगी।"
यह आवाज़ विद्रोह का सूत्र बनी। पिता बिछाराम गठवाला ने समस्त जाट खापों को संगठित किया। इस संघर्ष में अन्य जातियों, जैसे एक बाल्मीकि युवक भी शामिल होने का पुस्तक में उल्लेख भी आता है। समवेत प्रयासों से नवाब मुराद अली के विरुद्ध निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें जाट पक्ष के अनेक बहादुर वीरगति को प्राप्त हुए, किंतु अंततः अत्याचारी नवाब, उसके परिवार के उन्नीस सदस्य और किला व कौला–सभी ध्वस्त कर दिए गए। यह घटना एक सामाजिक जागरण की मिसाल बनी।
श्री जाखड़ की यह पुस्तक इतिहास और कल्पना का सुंदर समन्वय है। उन्होंने भावार्थ को काव्य में पिरोकर उसे इतना सहज बना दिया है कि पाठक आरंभ करते ही अंत तक पढ़ने हेतु बँध जाता है। यह रचना साहित्यिक, ऐतिहासिक और नैतिक दृष्टि से अत्यंत उपयोगी, ज्ञानवर्धक और प्रेरणास्पद है।
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अशोक कुमार जाखड़ जी की यह काव्य-ग्रंथावली एक विलुप्त होती ऐतिहासिक सच्चाई को पुनः जीवित करने का अभिनव प्रयास है। यह न केवल साहित्यिक अभिव्यक्ति है, बल्कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और नारी-स्वाभिमान की अमर कथा है। इस प्रेरणास्पद ग्रंथ के लिए मैं लेखक को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं देती हूँ। आशा है कि यह पुस्तक समाज में चेतना और एकता का संदेश प्रसारित करती रहेगी।
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