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यह पुस्तक, हिंदी पत्रकारिता की भाषा को उसके वर्तमान मानक स्वरूप तक पहुंचाने वालों के योगदान पर केन्द्रित है जिन्होंने इंदौर जैसे गुमनाम शहर में रहते हुए "सुबहे-बनारस" स्तरीय भाषा को "शबे-मालवा" का यौवन दिया।
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