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हिंदुत्व की अवधारणा: उत्पति एवं विकास

डॉ. राज दुलारी
Type: Print Book
Genre: History
Language: Hindi
Price: ₹795 + shipping
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Description

यह पुस्तक हिंदुत्व की अवधारणा को उसके ऐतिहासिक उद्गम से लेकर उसके वर्तमान स्वरूप तक, एक व्यापक और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से परखने का प्रयास करती है। हमारा उद्देश्य इस जटिल विषय की परतों को खोलना है, यह समझना है कि यह कैसे एक विचार के रूप में उभरा, किन चरणों से गुजरा, और आधुनिक भारत के राष्ट्रीय विमर्श में अपनी वर्तमान स्थिति तक पहुंचा।
अक्सर, हिंदुत्व को हिंदू धर्म के साथ भ्रमित किया जाता है। हालांकि ये दोनों शब्द एक ही मूल 'हिंदू' से निकले हैं, लेकिन उनके अर्थ और निहितार्थों में महत्वपूर्ण अंतर है। हिंदू धर्म एक प्राचीन, बहुआयामी और उदार धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा है जिसमें आस्थाओं, दर्शनों और जीवन शैलियों की एक विशाल श्रृंखला समाहित है। इसके विपरीत, हिंदुत्व, जैसा कि इसे बीसवीं सदी की शुरुआत में परिभाषित किया गया था, मुख्य रूप से एक राजनीतिक-सांस्कृतिक विचारधारा है जो भारत को एक 'हिंदू राष्ट्र' के रूप में देखती है, जो एक साझा भू-सांस्कृतिक पहचान, पूर्वजों और राष्ट्रीय गौरव पर आधारित है। यह अंतर इस पुस्तक का प्रारंभिक और केंद्रीय बिंदु होगा, जिसे हम अध्याय 1 में विस्तार से समझेंगे।
हिंदुत्व की कहानी भारतीय राष्ट्रवाद के उदय की कहानी से अविभाज्य रूप से जुड़ी हुई है। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत, भारतीयों ने अपनी पहचान और राष्ट्र के स्वरूप पर गहरे विचार-विमर्श शुरू किए। यह वह समय था जब भारतीय समाज में सुधारवादी आंदोलन चल रहे थे, और 'भारतीय राष्ट्र' की अवधारणा को परिभाषित करने के प्रयास किए जा रहे थे। इन प्रयासों में, कुछ विचारकों ने भारत की पहचान को उसके 'हिंदू' विरासत से जोड़कर देखा। अध्याय 2 में हम इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को खंगालेंगे, जिससे हिंदुत्व के उदय की जमीन तैयार हुई।
इस विचारधारा के सबसे प्रमुख सूत्रधार विनायक दामोदर सावरकर थे, जिनकी 1923 में प्रकाशित पुस्तक "हिंदुत्व: हू इज अ हिंदू?" ने इस अवधारणा को एक सुसंगत रूप दिया। सावरकर ने हिंदुत्व की एक भू-सांस्कृतिक परिभाषा प्रस्तुत की, जिसमें भारत भूमि के प्रति प्रेम, साझा संस्कृति और एक ही वंश से उत्पन्न होने की भावना को केंद्रीय महत्व दिया गया। अध्याय 3 सावरकर के विचारों और उनकी ऐतिहासिक देन का विश्लेषण करेगा। सावरकर के विचारों को व्यवहारिक रूप देने और जन-जन तक ले जाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और अन्य संबंधित संगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अध्याय 4 में हम आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और संगठन की प्रारंभिक कार्यप्रणाली पर प्रकाश डालेंगे, जिसने हिंदुत्व को एक जमीनी आंदोलन में बदलने की नींव रखी। स्वतंत्रता-पूर्व और स्वतंत्रता-पश्चात भारत में हिंदुत्व का विकास आसान नहीं था। महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा, और स्वतंत्र भारत ने धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को अपनाया। ऐसे में, हिंदुत्व के विचार को राजनीतिक और सामाजिक स्वीकृति के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। अध्याय 5 और 6 में हम इन चुनौतियों का, जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा का, और राम जन्मभूमि आंदोलन जैसे प्रमुख मोड़ों का विश्लेषण करेंगे, जिन्होंने हिंदुत्व को भारतीय राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया।
इक्कीसवीं सदी में, हिंदुत्व एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा है, जिसने भारत की घरेलू नीतियों, विदेश संबंधों और सांस्कृतिक विमर्श को नया आकार दिया है। अध्याय 7 समकालीन हिंदुत्व के विभिन्न आयामों – आर्थिक राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, और वैश्विक प्रभाव – को समझने का प्रयास करेगा।
हालांकि, हिंदुत्व एक निर्विवाद विचारधारा नहीं है। यह गहन आलोचना और तीखी बहस का विषय रहा है। धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकों के अधिकारों, ऐतिहासिक पुनर्व्याख्या और समावेशिता जैसे मुद्दों पर इसके साथ गहरे मतभेद रहे हैं। अध्याय 8 में हम हिंदुत्व पर की गई प्रमुख आलोचनाओं और उन बहसों पर विचार करेंगे जो इसके स्वरूप को लेकर आज भी जारी हैं।
अंततः, हिंदुत्व का भविष्य क्या है? क्या यह भारतीय समाज और राजनीति में अपनी वर्तमान स्थिति बनाए रखेगा, या बदलते समय के साथ यह स्वयं को फिर से परिभाषित करेगा? अध्याय 9 में हम इन सवालों पर विचार करेंगे और इस विचारधारा की संभावित दिशाओं पर चिंतन करेंगे।
यह पुस्तक किसी पक्ष का समर्थन या विरोध करने का दावा नहीं करती है। हमारा उद्देश्य एक जटिल और अक्सर भावनात्मक रूप से चार्ज किए गए विषय पर एक संतुलित, सूचनात्मक और विश्लेषणात्मक परिप्रेक्ष्य प्रदान करना है। हम आशा करते हैं कि यह अध्ययन पाठकों को हिंदुत्व की अवधारणा को उसकी संपूर्णता में समझने में मदद करेगा, और उन्हें भारतीय पहचान के इस महत्वपूर्ण पहलू पर अपनी स्वयं की सूचित राय बनाने के लिए प्रेरित करेगा। यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य के चौराहे पर ले जाएगी।

About the Author

साहित्य जगत में कुछ ऐसे असाधारण व्यक्तित्व होते हैं, जिनकी रचनाएँ मात्र शब्दों का संग्रह नहीं होतीं, बल्कि ज्ञान, प्रेरणा और सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत प्रतिरूप बन जाती हैं। उनकी कृतियाँ न केवल संख्या में विपुल होती हैं, बल्कि गुणवत्ता और गहनता के मामले में भी पाठकों को मंत्रमुग्ध कर देती हैं, और उन्हें एक अविस्मरणीय साहित्यिक अनुभव प्रदान करती हैं।
इसी श्रेणी में डॉ. राजदुलारी का नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। वे एक प्रख्यात और प्रतिष्ठित इतिहासकार होने के साथ-साथ एक अत्यंत कुशल एवं प्रवाहमयी लेखिका भी हैं, जिन्होंने भारतीय इतिहास के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। डॉ. राजदुलारी की कालजयी पुस्तकें, विशेषकर उनकी कृति "प्राचीन भारत का स्वर्णिम इतिहास" और "स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगनाएं", हिंदी साहित्य में एक अमूल्य और अनुकरणीय योगदान मानी जाती हैं। "प्राचीन भारत का स्वर्णिम इतिहास" भारतीय संस्कृति और विरासत के गौरवशाली अध्याय को अत्यंत प्रामाणिक और रोचक शैली में प्रस्तुत करती है, जबकि "स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगनाएं" उन असंख्य महिलाओं की कहानियों को जीवंत करती है जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। डॉ. राजदुलारी की रचनाएँ सिर्फ ऐतिहासिक तथ्यों का संग्रह नहीं हैं, बल्कि वे भारत के समृद्ध अतीत के बारे में गहन और सूक्ष्म जानकारी प्रदान करती हैं। उनका लेखन सदियों से इस भूमि पर विकसित हुई अनूठी संस्कृति, लोक परंपराओं और आध्यात्मिक मूल्यों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता है, जिससे पाठक भारत की आत्मा से जुड़ पाते हैं। उनके लेखन में हिंदुत्व की अवधारणा: उत्पत्ति एवं विकास और इसके शाश्वत मूल्यों के प्रति एक सच्चा, गहरा और बौद्धिक समर्पण स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। वे हिंदुत्व को केवल एक धार्मिक पहचान के रूप में नहीं, बल्कि एक व्यापक सांस्कृतिक और दार्शनिक जीवन-दृष्टि के रूप में विश्लेषण करती हैं, जो भारत की सभ्यतागत यात्रा का अभिन्न अंग रही है। वर्तमान में, डॉ. राजदुलारी विनोद बिहारी महतो कोयलांचल विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं, जहाँ वे अपने विस्तृत ज्ञान और अनुभव का लाभ युवा पीढ़ी को प्रदान कर रही हैं। उनका अकादमिक योगदान उनके साहित्यिक कार्यों को और अधिक सशक्त बनाता है, जिससे वे शोध, लेखन और शिक्षण के क्षेत्र में एक अद्वितीय प्रतिमान स्थापित करती हैं।

Book Details

ISBN: 9788199049901
Publisher: RCIT
Number of Pages: 444
Dimensions: A5
Interior Pages: B&W
Binding: Paperback (Perfect Binding)
Availability: In Stock (Print on Demand)

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