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"विचारों की विरासत: भारतीय साहित्य और ज्ञान परंपरा" एक ऐसी पुस्तक है जो भारत की हजारों वर्षों पुरानी बौद्धिक और सांस्कृतिक परंपरा को समझने, विश्लेषण करने और समकालीन संदर्भों में उसकी प्रासंगिकता को उजागर करने का प्रयास करती है। यह ग्रंथ केवल साहित्यिक विमर्श नहीं, बल्कि उस समूची चिंतन प्रणाली का दर्पण है, जिसमें भारतीय समाज की आध्यात्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक चेतना रची-बसी है।
भारतीय ज्ञान परंपरा विश्व की प्राचीनतम और सर्वाधिक सुसंगठित परंपराओं में से एक है। यह परंपरा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह जीवन पद्धति, चिंतन प्रक्रिया, व्यवहार और सामाजिक आचरण में भी व्याप्त रही है। वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों से लेकर लोक परंपराओं, संत साहित्य, आधुनिक आलोचना और नवसृजनात्मक प्रवृत्तियों तक यह परंपरा एक बहुपरतीय विमर्श प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक का उद्देश्य इसी व्यापकता को समेटते हुए भारतीय साहित्य और ज्ञान की परंपरा को विचारों की एक अंतःसलिला के रूप में देखना है, जो युग-युगांतर से बहती आ रही है।
भारत की साहित्यिक परंपरा मात्र कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रही, बल्कि यह एक सामाजिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक संवाद की प्रक्रिया रही है। साहित्य ने समय-समय पर समाज की दिशा तय की है, लोक-चेतना को स्वर दिया है और सत्ता से संवाद या संघर्ष का माध्यम भी बना है। चाहे वेदों की ऋचाएँ हों या बुद्ध की वाणी, भक्तिकालीन संतों की वाणी हो या आधुनिक युग के प्रगतिशील लेखकों की रचनाएँ — सभी ने अपने-अपने समय में विचारों की एक ऐसी विरासत रची है, जो आज भी हमारे चिंतन, दृष्टिकोण और संवेदनशीलता को आकार देती है।
पुस्तक के शीर्षक "विचारों की विरासत" का चयन एक गहरी प्रतीकात्मकता को अभिव्यक्त करता है। यह विरासत केवल भूतकाल की निधि नहीं, बल्कि वर्तमान को दिशा देने वाली और भविष्य को आलोकित करने वाली जीवंत ऊर्जा है। भारतीय ज्ञान परंपरा की यह विशिष्टता रही है कि उसमें विचारों का निरंतर प्रवाह रहा है। जहाँ एक ओर परंपरा का सम्मान है, वहीं दूसरी ओर उसमें प्रश्न करने, तर्क करने और पुनर्विचार की स्वतंत्रता भी है। यह ग्रंथ इसी द्वंद्वात्मकता, इसी बहुलता और इसी संवादधर्मिता की खोज है।
पुस्तक में भारतीय साहित्य की विभिन्न धाराओं का समावेश किया गया है—प्राचीन वेदवाङ्मय से लेकर शास्त्रीय काव्य, बौद्ध और जैन साहित्य, मध्यकालीन भक्तिधारा, आधुनिक काल की नवजागरण चेतना, और समकालीन आलोचना तक। यह विवेचनात्मक क्रम इस बात का साक्ष्य है कि भारतीय साहित्यिक परंपरा केवल रचनात्मकता नहीं, बल्कि वैचारिक संघर्षों, आत्ममंथन और सांस्कृतिक पुनराविष्कार की प्रक्रिया भी रही है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में "श्रुति" और "स्मृति" के माध्यम से ज्ञान को संरक्षित और प्रसारित करने की जो विधियाँ विकसित हुईं, उन्होंने मौखिक और लिखित दोनों ही परंपराओं को समान महत्व प्रदान किया। यही कारण है कि लोक साहित्य और विद्वत साहित्य, दोनों ने समान रूप से ज्ञान को जनमानस तक पहुँचाया। एक ओर जहाँ वेदांत, न्याय, मीमांसा, योग और सांख्य जैसे दर्शन शास्त्र विचारों के गूढ़ विश्लेषण में संलग्न रहे, वहीं दूसरी ओर कबीर, मीरा, तुलसी, सूर, रैदास जैसे संत कवियों ने जनभाषा में जीवन और आध्यात्म की गहराइयों को सरलता से व्यक्त किया।
इस पुस्तक में यह भी दर्शाया गया है कि भारतीय साहित्यिक परंपरा केवल आध्यात्मिक विमर्श तक सीमित नहीं रही, बल्कि उसने सामाजिक अन्याय, वर्ग भेद, जाति व्यवस्था, स्त्री प्रश्न और मानवीय स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर भी सशक्त हस्तक्षेप किया है। यह विचारशीलता ही इस परंपरा को जीवंत बनाती है और इसे महज अतीत की वस्तु न मानकर वर्तमान की आवश्यकता बनाती है।
ज्ञान परंपरा के संदर्भ में यह पुस्तक उन संस्थागत एवं पारंपरिक संरचनाओं की भी पड़ताल करती है, जिन्होंने ज्ञान को संरक्षित, संवर्धित और प्रचारित किया—जैसे आश्रम, गुरुकुल, टोल, पाठशालाएँ, और बाद में विश्वविद्यालय। साथ ही यह पुस्तक आधुनिक काल में इन संरचनाओं के परिवर्तन और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों पर भी विमर्श प्रस्तुत करती है।
"विचारों की विरासत" एक ऐसा प्रयास है जिसमें साहित्य को एक वैचारिक परंपरा के रूप में देखा गया है—न कि केवल सौंदर्यपरक अनुशासन के रूप में। साहित्य को ज्ञान की एक शाखा, एक अनुशासन और एक संस्कृति के रूप में स्वीकार करने की यह दृष्टि ही इस पुस्तक की आधारशिला है।
यह पुस्तक छात्रों, शोधकर्ताओं, अध्यापकों और सामान्य पाठकों—सभी के लिए उपयोगी होगी जो भारतीय साहित्य की गहराइयों में उतरना चाहते हैं और यह समझना चाहते हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा ने कैसे मानवता, नैतिकता, और आध्यात्मिकता की दिशा में अपने विचारों से युगों तक योगदान दिया।
अंततः, यह पुस्तक केवल एक इतिहास नहीं है, यह एक संवाद है—भूत, वर्तमान और भविष्य के बीच; परंपरा और आधुनिकता के बीच; और सबसे बढ़कर, विचार और कर्म के बीच। आशा है कि यह संवाद पाठकों को प्रेरित करेगा कि वे भी इस विचार परंपरा का हिस्सा बनें, प्रश्न करें, विचार करें, और उस विरासत को आगे बढ़ाएँ, जो केवल स्मृति नहीं, अपितु जीवंत चेतना है।
किसी भी लेखक के विचारों के साथ संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है। किसी भी प्रकार के विचारों और लेखन के लिए लेखक स्वयं जिम्मेदार है।
संपादक ने अपनी तरफ से साहित्यिक चोरी को रोकने का प्रयास किया है। अगर फिर भी किसी लेखक के लेख में ऐसा कुछ प्राप्त होता है। इस सुरत-ए-हाल में वह स्वयं इसके लिए जिम्मेदार होगा।
-संपादिका
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