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मुरली मनोहर श्रीवास्तव एक जाने-माने व्यंग्यकार और कवि हैं। वह एक चिंतक भी हैं, जिसका एहसास उनका कविता संग्रह 'सम्भावना' पढ़ते हुए हुआ था। दुर्योग से वह कोरोना महामारी की चपेट में आ गए थे, जिससे बड़ी सहजता से वह बाहर भी निकल आए। लेकिन लेखक चूंकि संवेदनशील प्राणी होता है, इसलिए वह त्रासदियों को सामान्य निगाहों से नहीं देखता। लेखक ने भी नहीं देखा। इसके बजाय उन्होंने इसे एक चुनौती की तरह लिया और महामारी से लड़ने की ठानी। कोरोना पॉजिटिव होते ही जिम्मेदार व्यक्ति की तरह उन्होंने अपने परिजनों की जांच कराई, घर पर क्वारंटीन हुए और पृथकवास की अवधि में लिखने-पढ़ने की पूरी रूपरेखा भी तैयार कर ली। यह किताब उसी का नतीजा है, जिसमें चार कहानियां, पांच व्यंग्य और आठ कविताएं हैं। यानी क्वारंटीन के कुल जमा सत्रह दिनों में सत्रह रचनाएं! बेशक क्वारंटीन काल की इन रचनाओं पर महामारी की छाया है, कुछ तो सीधे-सीधे उससे प्रभावित या उसे संबोधित हैं। लेकिन इन तमाम रचनाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण दरअसल पुस्तक की भूमिका है, जो क्वारंटीन काल में लेखक के ऊहापोह और द्वंद के बारे में बताती है और साबित करती है कि सकारात्मक जीवन बोध, जो अध्ययन, अनुशीलन और अनुभव से आता है, दवा और वैक्सीन से कहीं प्रभावी और ज्यादा ताकतवर है।
अज्ञेय की एक बेहद चर्चित कविता की पंक्तियां हैं, 'दुख सबको मांजता है/और चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किंतु/ जिनको मांजता है, उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।'
मुरली मनोहर श्रीवास्तव की यह किताब सिर्फ कोरोना के विरुद्ध नहीं, बल्कि किसी भी विपत्ति के विरुद्ध मनुष्यता को जूझने और जीतने का हौसला देगी।
कल्लोल चक्रवर्ती ( संपादकीय मण्डल - अमर उजाला )
मस्ट रीड बुक इन कोरोना पीरियड
यह पुस्तक सचमुच करोना से लड़ने के लिए एक शक्ति प्रदान करती है । निश्चय ही करोना से लड़ाई एक मानसिक लड़ाई है और यह पुस्तक जीवन के किसी भी युद्ध में इंसान को लड़ने की ताकत देती है ।
सब से बड़ी बात लेखक खुद भी करोना से लड़ कर बाहर आया है और पुस्तक उसके जीवन के अनुभव भी बांटती है जो झूठ नहीं है ।