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जब सिस्टम हो सुस्त और जनता हो जुगाड़ी,
तो चमत्कार भी देसी अंदाज़ में ही होते हैं!
यह कहानी है चंपकलाल की — एक आम आदमी, जो असाधारण परिस्थितियों में फँसकर भी हँसता है, सोचता है, और कभी-कभी… चप्पल से भी न्याय कर देता है!
सरकारी दफ्तरों की फाइलों, चाय की ठंडी प्यालियों और समाज की गरम-गरम बातों के बीच,
यह उपन्यास भारतीय हास्य-व्यंग्य की नई खुशबू लाता है।
यहाँ हर किरदार कहीं-न-कहीं आपसे टकराएगा —
चाहे वो वोह अफसर हो जो “काम कल कर दूँगा” की परंपरा निभा रहा है,
या वो आम आदमी जो सोचता है,
“अगर सरकार कुछ नहीं करेगी, तो चंपकलाल की चप्पलें ही सही…”
चॉकलेट, चाय और चंपकलाल की चमत्कारी चप्पलें
हास्य के बहाने समाज के आईने में वो सच्चाई दिखाती है,
जिसे हम रोज़ देखते हैं… पर अनदेखा कर देते हैं।
यह किताब उन सबके लिए है जो
“मुस्कुराते हुए सोचने” की ताक़त में यकीन रखते हैं।
पढ़िए, मुस्कुराइए, और कभी-कभी… थोड़ा सोच भी लीजिए।
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