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भूख - एक भयावह उपन्यास
कालीगढ़ का नाम लेते ही लोग चुप हो जाते हैं।
वहाँ की हवेली अब भी खड़ी है - टूटी, जर्जर, मगर जिंदा।
जब मीरा अपने मामा के बुलावे पर उस हवेली में पहुँचती है, तो उसे लगता है कि सब कुछ बस पुरानी बातों का वहम है।
पर रातें बीतती हैं, और हवेली साँस लेने लगती है - दीवारों से आवाजें आती हैं, छत से कोई उतरता है, और हर ओर बस एक अजीब सी भूख महसूस होती है...
यह भूख रोटी की नहीं - ख़ून की भी नहीं।
यह है वो भूख, जो आत्माओं को निगल जाती है, पीढ़ियों को शाप देती है, और इंसान को धीरे-धीरे अपने भीतर से खोखला कर देती है।
‘भूख’ एक ऐसा भयावह उपन्यास है जो रूह के भीतर तक उतर जाता है।
यह कहानी है एक हवेली की, एक परिवार के पाप की, और उस अदृश्य भूख की -
जो हर जन्म में अपनी बारी ढूँढ लेती है।
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