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हमारे जीवन में बहुत से ऐसे प्रश्न होते हैं, जिनका उत्तर मिल नहीं पाता। यदि किसी माध्यम से उत्तर मिल भी जाए तो संतुष्टि नहीं मिलती। और ऐसे प्रश्न अधिकतर स्वयं के स्वयं से होते हैं, जिनका चिंतन-मनन स्वयं ही करना चाहिए। परन्तु स्वयं चिंतन-मनन करने के लिए भी आरम्भ में कुछ ऐसे तर्कों की आवश्यकता होती है, जिनको आधार बनाया जा सके, और उसी आधार पर आगे अपनी साधना का प्रारम्भ कर सके।
क्योंकि श्रद्धा ज्ञान से होती है, और भक्ति श्रद्धा से। एक बुद्धि परमात्मा में होने के पश्चात ही साधना का परिणाम दिखता है। साधना साध्य के लिए होती है और साध्य के विषय में प्रश्न बन रहे हों तो साधना भी नहीं हो सकती, और बाद में मनुष्य को कोई फल नहीं मिलता। इसलिए सारे द्वंद्वों को ज्ञान द्वारा दूर करके सबसे पहले श्रद्धा को ज्ञान द्वारा उत्पन्न कर लेना चाहिए। श्रद्धा का अर्थ है कि एक परमात्मा का ज्ञान हो जाए, और कोई प्रश्न बचे न—तभी सच्ची श्रद्धा हो भी सकती है।
इस पुस्तक को लिखते समय मैंने यह प्रयास किया कि पाठक, साधक और मननशील व्यक्ति को वह ज्ञान, जो हमारे शास्त्रों में है, उसे सरल बनाया कुछ तर्क जोड़े है जिससे एक साधारण व्यक्ति भी समझ सके, यह जीवन में कैसे उतरे; सत्य क्या है, और हम सत्य के मार्ग पर कैसे चलें; आज के युग के अनुसार कर्म कैसे करें; और जब कठिनाइयों का सामना हो—उनसे कैसे पार उतरें—इन सबके साथ अपनी साधना को कैसे प्रारम्भ रखें, परमात्मा हमारे जीवन में कैसे सहायक बनेंगे—सब कुछ मैंने इस पुस्तक में समझाने का प्रयास किया है।
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