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यह कहानी किरन नाम की एक साहसी और आत्मनिर्भर स्त्री के संघर्ष की दास्तान है,किरन खिड़की से बाहर देख रही थी, लेकिन नज़रें कहीं और थीं—उस अंधेरे में, जिसने उसकी ज़िंदगी को जकड़ लिया था। धूप बाहर भले खिली हो, मगर उसके दिल में घनघोर अंधेरा पसरा था। शादी को तीन साल हुए थे, लेकिन इन तीन सालों में उसने प्यार के बदले केवल उपेक्षा पाई थी। फ़ैसल ने उसे कभी इंसान नहीं समझा। उसके लिए वह सिर्फ एक बीवी थी—बिस्तर पर हक जताने का हकदार शरीर, और घर के काम-काज का सामान।लेकिन किरन के अंदर एक ज्वालामुखी उबल रहा था, जिसका विस्फोट उस रात हुआ जब वह पहली बार अपने हक की बात करने की हिम्मत जुटा पाई।“मुझे तुझसे ये उम्मीद नहीं थी, किरन!” फ़ैसल ने गुस्से से बिफरते हुए कहा।"बस, मैं अपना हक माँग रही हूँ, फ़ैसल। क्या यह गुनाह है?" किरन की आवाज़ में पीड़ा थी, मगर वह कमजोर नहीं थी।“तेरी औकात याद रख! ये सब बकवास मैं नहीं सुनने वाला!” फ़ैसल की आँखें अंगारे बरसा रही थीं।तिलमिलाए हुए फ़ैसल ने नफ़रत से चीखते हुए कहा, “तलाक, तलाक, तलाक!”किरन जैसे सुनते ही जड़ हो गई। दिल के अंदर कुछ टूट गया था—शायद उसकी आत्मा। यह तो बस गुस्से में कहे गए तीन शब्द थे, लेकिन इन शब्दों ने उसकी ज़िंदगी को तहस-नहस कर दिया था। वह अपने होश में आने की कोशिश कर ही रही थी कि फ़ैसल ने हुक्म दिया: “सुबह तक इस घर से निकल जा।”किरन का दिल बैठ गया। “फ़ैसल... मैं कह रही थी कि...” उसने कांपते हुए कहना चाहा, मगर उसकी बात पूरी होने से पहले ही फ़ैसल ने हाथ उठा दिया।“चुप! अब इस घर में तेरा कोई हक
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