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मनुष्य का मन पूर्णत्व को पाना चाहता है और वो पुर्णत्व को प्राप्त करने के लिये ही बना है. मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त करने में सामर्थवान होते हुए भी भूलवश मूर्तियों में, पेड़- पौधों में, पत्थरों में अपनी आस्था आरोपित कर अपने मन को संकुचित कर लेता है और करोड़ों- करोड़ों वर्षों तक दू:खभोग करता रहता है. ये मूर्ति तो एक क्षूद्र वस्तु है. मूर्तियों को श्रीकृष्ण अथवा शिव का पूर्ण स्वरूप समझ लेना बहूत बड़ी भूल है. वैसे भी मन के बाहर उनके स्वरूप का ठीक- ठीक अनुमान लगा पाना असम्भव ही है. अत: साधना का पथ अंतर्जगत की यात्रा का पथ है. अंतर्जगत में ही पूर्णत्व को प्राप्त किया जा सकता है. जो लोग वृक्ष की साधना- पुजा करते हैं वो वृक्ष में, जो लोग पत्थर की पुजा- अर्चना करते हैं वो पत्थर में प्रकृतिलीन बनकर असंख्य वर्षों तक समाहीत रहेंगे. आपलोगों को ये बात अतिशीध्र समझ लेना होगा कि अष्टपाश मुक्ति के पथ पर बहुत बड़े बाधक हैं. अतएव शीघ्रातिशीघ्र आपको अपने आपको पाशमूक्त कर लेना आपसब का धर्म है. सभी बंधनों से मूक्ति प्रदान करना केवल ईश्वर की कृपा पर ही आश्रित है. फिर भी उन्होंने शास्त्रों के माध्यम से एक विशेष उद्घोषणा की है...
पाशबद्धो भवेत् जीव: पाशमूक्तो भवेत् शिव:...
शुभमस्तु ! शुभमस्तु ! शुभमस्तु !
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