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योगीगण किस प्रकार एक स्थान पर बैठे ही बैठे किस प्रकार इच्छानुसार लोक-लोकान्तरों का भ्रमण करते हैं- उसकी पृष्ठभूमि में लोक-लोकान्तरों के स्पन्दन और प्रकम्पन ही है। प्रकम्पन से ध्वनि उत्पन्न होती है, ध्वनि से प्रकाश। प्रकम्पन से उत्पन्न होने वाली ध्वनि की गति जब अपनी गति सीमा को पार करती है तो प्रकाश में परिवर्तित हो जाती है। वह प्रकाश अदृश्य होता है किन्तु होता है अत्यन्त प्रभावशाली और गतिमान। योगीगण उसी प्रकाश से अपने स्पन्दनों को कम्पनों में और उन कम्पनों को प्रकाश में परिवर्तित कर, उसका संबंध स्थापित कर प्रकाश की गति से तत्काल इच्छित लोक-लोकान्तरों से अपना सम्पर्क स्थापित कर लेते हैं।
आकाश और महाकाश के बीच में जो स्थान है उसे महाशून्य कहते हैं जिसे योग की भाषा में चित्ताकाश की संज्ञा दी गयी है। इसी प्रकार महाकाश और परमाकाश के बीच में जो संधिस्थान है उसे परमशून्य कहते हैं। परमशून्य योगियों का चित्ताकाश...
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