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“जनतंत्र का आईना: चुनाव, राजनीति और समाज पर व्यंग्यात्मक कविताएँ” एक ऐसा काव्य-संग्रह है, जो हमारे लोकतंत्र, राजनीति और समाज की उन परतों को उजागर करता है जिन्हें हम प्रतिदिन देखते तो हैं, पर अक्सर अनदेखा कर देते हैं।
लोकतंत्र में जनता को सर्वोपरि माना जाता है।
लेकिन वास्तविकता में क्या जनता सचमुच सर्वोपरि है?
चुनावी वादों, नारों, मुफ़्तख़ोरी और सत्ता की भूख के बीच आम आदमी कहाँ खड़ा है?
इन्हीं सवालों और उनके उत्तरों की खोज है यह काव्य-संग्रह — “जनतंत्र का आईना”।
कवि देवेंद्र प्रताप ‘नासमझ’ ने अपनी कविताओं के माध्यम से भारतीय राजनीति और समाज की तस्वीर को व्यंग्य और संवेदना के रंगों में उकेरा है।
यह पुस्तक सात अध्यायों में विभाजित है, और हर खंड लोकतंत्र की एक अलग परत को सामने लाता है:
चुनावी रंगमंच : चुनावी वादों, नारों, नोटा, मतदाता की व्यथा और मुफ़्त की राजनीति पर व्यंग्य।
सत्ता के खेल : राजनीतिक नैरेटिव, जुमले, धरना, गुटबंदी और शिक्षा जैसे मुद्दों पर व्यंग्य।
भ्रष्ट तंत्र : मीडिया, इलेक्टोरल बॉन्ड, पेपर लीक, सड़कें, गाँवों की उपेक्षा और भ्रष्ट नेताओं का सच।
न्याय के आईने में : न्यायपालिका से जुड़े प्रश्न, अनोखे फ़ैसले और अधूरे उत्तर।
मानवता की आवाज़ : सामाजिक सौहार्द, इंसानियत और राष्ट्रीय एकता की पुकार।
दुनिया का आईना : वैश्विक अन्याय, युद्ध, प्रदूषण, टैरिफ और नए उपनिवेशवाद जैसी चुनौतियाँ।
कल का सपना, भारत अपना : भविष्य का भारत, उसकी चुनौतियाँ और उम्मीदें।
इन कविताओं में केवल आलोचना नहीं है, बल्कि सवाल भी हैं, चेतावनी भी है, और कहीं न कहीं एक बेहतर कल की झलक भी। लेखक का उद्देश्य है पाठकों को हँसाना, चुभाना और साथ ही सोचने पर मजबूर करना।
अपनी पिछली कृति “कॉरपोरेट पर अनकही कविताएँ” में लेखक ने कॉरपोरेट जीवन की अनकही सच्चाइयों और तकलीफ़ों को स्वर दिया था।
इस नई पुस्तक में वे राजनीति और समाज की जटिलताओं को आईने की तरह हमारे सामने रखते हैं।
यह कृति हर उस पाठक के लिए है, जो लोकतंत्र को समझना चाहता है, उसकी कमियों पर सवाल उठाना चाहता है और एक बेहतर भविष्य का सपना देखता है।
“जनतंत्र का आईना” केवल कविताओं का संग्रह नहीं, बल्कि नागरिक चेतना का दस्तावेज़ है।
देवेंद्र प्रताप ‘नासमझ’
2 अक्टूबर 2025
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