हैलो...
किसी भी नए लेखक के लिए सबसे कठिन काम, की भाईसाब चलिए अब अपनी तारीफ़ में दो शब्द बयां कीजिये. बेचारा, संकरी गली में गड़े बिजली के खम्बे पर टंगे पोस्टर की तरह एक दम एक्सपोज्ड फील करता है. सर खुजलाते हुए सोचता है किताब तो लिख दी अब अपने बारे में क्या लिखूँ. क्या लिखूँ जिससे लोग बुद्धजीवी नहीं समझें तो कमसकम सीरियसली तो लें. नया लेखक थोड़ा घबराया हुआ होता है, लेकिन मैं उतना नहीं हूँ. मैं प्रोफेशन से एड एजेंसी कॉपीराइटर हूँ, पिछले सात साल से लिख रहा हूँ इसलिए मेरी खाल थोड़ी मोटी है. लेकिन आज तक इंग्लिश में लिखता रहा और अब जब पहली बार हिंदी में पब्लिश कर रहा हूँ तो थोड़ी मेरी हालत भी पतळी है.
मेरा नाम उमेश है, यकीन मानिये ये लिखते लिखते मेरे दिमाग में ख्याल आया की बतौर लेखक अपना पूरा नाम कभी नहीं लिखूंगा. छोटा नाम क्यूट लगता है और लानत भेजो जाती पर. मैं लखनऊ का हूँ, वहीँ पला बड़ा और फिर इंदौर में देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन करके बाम्बे आया. शुरुआत में टीवी के लिए लिखने की कोशिश की. लेकिन जल्द समझ गया की सास बहु के लिए लिखते लिखते लिंग परिवर्तन हो जायेगा. वैसे ऐसा नहीं था की टीवी ने मुझे सर आँखों पर बिठा रखा था, वो भी मुझे काम नहीं देते थे. इसलिए एक दुसरे के लिए ये हीन विचार म्यूच्यूअल थे. फिलहाल रोज़ी रोटी के लिए कुछ तो करना था, तो मेरी गर्लफ्रेंड जो अब मेरी वाइफ है उसने सजेस्ट किया की एड एजेंसी के लिए क्यों नहीं लिखते. मैंने सुझाव माना और एङ एजेंसीज में मेरी लिखायी चल पड़ी.
कहते हैं किसी चीज़ को जितना दबाओ वो उतना फ़ोर्सेफुली उभरती है. हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू का मिक्स) में मैं पहले बहुत लिखता था, लेकिन एजेंसीज में ज्यादा मौके नहीँ मिले इसलिये साइड बाई साइड लिखता रहा. दंग रह जाता जब लोगों को मेरा लिखा बढ़ा पसन्द आता. मेरे छोटे भाई ने यहाँ तक बोला "अबे बेवकूफ बना रहे हो ये तुमने लिखा है". उसके बाद मेरी बीवी के काफी पीछे पडने के बाद में अब अपनी कविताओं कि पहली ई-बुक निकाल रहा हूँ. मैं आज भी बॉम्बे मे रहता हूँ और एड एजेंसीज मेँ काम कर रहा हूँ.
"परतें", ज़िन्दगी और दुनिया को मैने जैसा महसूस किया उसका विशलेषण है. उम्मीद करता हूँ आपको पसन्द आयेगी.
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