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‘झमेलिया बिआह’क झमेला जिनगीक स्वाभाविक रंग परिवर्तनसँ उद्भूत अछि, तँए जीवनक सामान्य गतिविधिक चित्रण चलि रहल अछि कथाकेँ बिना नीरस बनेने। नाटकक कथा विकास बिना कोनो बिहाड़िक आगू बढ़ैए, मुदा लेखकीय कौशल सामान्य कथोपकथनकेँ विशिष्ट बनबैए। पहिल दृश्यमे पति-पत्नीक बातचितमे हास्यक संग समए देवताक क्रूरता सानल बुझाइत अछि। दोसर दृश्यमे झमेलिया अपन स्वाभाविक कैशोर्यसँ समैक द्वारा तोपल खुशीकेँ खुनबाक प्रयास करैए। पहिल दृश्यमे बेकती परिस्थितिकेँ समक्ष मूक बनल अछि, आ दोसर दृश्यमे बेकतीत्व आ समैक संघर्ष कथाकेँ आगू बढ़बैत कथा आ जिनगीकेँ दिशा निर्धारित करैए। तेसर दृश्य देशभक्ति आ विधवा विवाहक प्रश्नकेँ अर्थ विस्तार दैत अछि, आ ई नाटकक गतिसँ बेसी जिनगीकेँ गतिशील करबा लेल अनुप्राणित अछि ।
चारिम दृश्यमे राधेश्याम कहै छथिन जे कमसँ कम तीनक मिलानी अबस हेबाक चाही। आ, लेखक अत्यंत चुंबकीयतासँ नाटकीय कथामे ओइ जिज्ञासाकेँ समाविष्ट कऽ दइ छथिन कि पता नै मिलान भऽ पेतै आ कि नहि। ई जिज्ञासा बरियाती-सरियातीक मारि-पीट आ समाजक कुकुर-चालिसँ निरंतर बनल रहै छइ। आ पांचम दृश्यमे मिथिलाक ओ सनातन ‘खोटिकरमा’ पुराण। दहेज, बेटी, बिआह आ घटकक चक्रव्यूह! आ लेखकक कटुक्ति जे ने केवल मैथिल समाज बल्कि समकालीन बुद्धिजीवी आ आलोचना लेल सेहो अकाट्य अछि : केतए नै दलाली अछि। एक्के शब्दकेँ जगह-जगह बदैल-बदैल सभ अपन-अपन हाथ सुतारैए। आ घटकभायकेँ देखियनु। समैकेँ भागबा आ समैमे आगि लगबाक स्पष्ट दृश्य हुनके देखाइ छैन। अपन नीच चेष्टाकेँ छुपबैत बालगोविन्दकेँ एक छिट्टा असीरवाद दइ छथिन। बालगोविन्दकेँ जाइते हुनकर आस्तिकताक रूपांतरण ऐ बिन्दुपर होइत अछि-
“भगवान बड़ीटा छथिन। जँ से नै रहितैथ तँ पहाड़क खोहमे रहैबला केना जिबैए। अजगरकेँ अहार केतए सँ अबै छइ। घास-पातमे फूल-फड़ केना लगै छै...।”
बातचितक क्रममे ओ बेर-बेर बुझबैक आ फरिछाबैक काज करै छैथ। मैथिल समाजक अगिलगओना। महत देबै तँ काजो कऽ देत नै तँ आगि लगा कऽ छोड़त!!!!!
छठम दृश्यमे बाबा आ पोतीक बातचित आ बरियाती जएबा आ नै जएबाक औचित्यपर मंथन। बाबा राजदेव निर्णय नै लऽ पाबै छथिन। बरियाती जएबाक अनिवार्यतापर ओ बिच-बिचहामे छथिन ‘छैहो आ नहियोँ छइ। समाजमे दुनू चलै छइ। हमरे बिआहमे मामेटा बरियाती गेल रहैथ। ‘मुदा खाए, पचबै आ दुइर होइक कोनो समुचित निदान नै भेटै छइ। बरियाती-सरियातीक बेवहार शास्त्र बनबैत राजदेव आ कृष्णानंद कथे-विहनिमे ओझरा कऽ रहि जाइ छैथ। दस बरिखक बच्चाकेँ श्राद्धमे रसगुल्ला मांगि-मांगि कऽ खाइबला हमर समाज बिआहमे किएक ने खाएत? तँए कामेसर भाय निसाँमे अढ़ाय-तीन सए रसगुल्ला आ किलो चारिएक माछ पचा गेलखिन आ रसगुल्लो सरबा एतए ओतए नै ऑतेमे जा नुका रहल !!!
सातम दृश्य सभसँ नमहर अछि, मुदा बिआह पूर्व बरपक्ष आ कन्यागतक झीका-तीरी आ घटकभाय द्वारा बरियाती गमनक विभिन्न रसगर प्रसंगसँ नाटक बोझिल नै होइ छइ। आ घटक भायपर धियान देबै, पूरा नाटकमे सभसँ बेसी मुहावरा, लोकोक्ति, कहबैकाक प्रयोग वएह करै छथिन। मात्र सातमे दृश्यकेँ देखल जाए-
“खरमास (बैसाख जेठ) मे आगि-छाइक डर रहै छइ।” (अनुभवक बहाने बात मनेनाइ)...।”
“पुरुष नारीक संयोगसँ सृष्टिक निर्माण होइए।” (सिद्धांतक तरे धियान मूलबिन्दुसँ हटेनाइ)...।
“आगूक विचार बढ़बैसँ पहिने एकबेर चाह-पान भऽ जाए।” (भोगी आ लालुप समाजक प्रतिनिधि)...।
“जइ काजमे हाथ दइ छी ओइ काजकेँ कैये कऽ छोड़ै छी।” (गर्वोक्ति)...
“जिनगीमे पहिल बेर एहेन फेरा लगल।” (कथा कहबासँ पहिले धियान आकर्षित करबाक सफल प्रयास)...।
“खाइ पिबैक बेरो भऽ गेल आ देहो हाथ अकैड़ गेल...।”
“कुटुम नारायण तँ ठरलो खा कऽ पेट भरि लेताह मुदा हमरा तँ कोनो गंजन गृहणी नहियेँ रखती।”
(प्रकारांतरसँ अपन महत आ योगदान जनबैत ई ध्वनि जे हमरो कहू खाइले)
आठमो दृश्यमे बालगोविन्द, यशोधर, भागेसर, घटकभाय बिआह आ बरियातीकेँ बुझौएल के निदान करबा हेतु प्रयासरत् छैथ, आ लेखक घटकभायकेँ पूर्ण नांगट नै बनबै छथिन, मुदा ओकर मीठ-मीठ शब्दक निहितार्थकेँ नीक जकाँ खोलि दइ छथिन। ऐ दृश्यमे बाजल बात, मुहावरा, लोकोक्ति आ प्रसंग, उदाहरणक बले ओ अपन बात मनबाबए लेल कटिबद्ध छथिन। हुनकर कहबैकापर धियान दियौ-
“जमात करए करामात...।”
“जाबत बरतन ताबत बरतन...।”
“नै पान तँ पानक डन्टीए-सँ...।”
“सतरह घाटक सुआद...।”
“अनजान सुनजान महाकल्याण।”
मुदा घटकभायकेँ ऐ सुभाषितानिक की निहितार्थ? ई अर्थ पढ़बा लेल कोनो मेहनति करबाक जरूरी नहि। ओ राधेश्यामकेँ कहै छथिन ‘जखन बरियाती पहुंचैए तखन शर्बत ठंढा गरम, चाह-पान, सिगरेट-गुटका चलैए। तैपर सँ पतोरा बान्हल जलपान, तैपर सँ पलाउओ आ भातो, पुड़ियो आ कचौड़ियो, तैपर सँ रंग-बिरंगक तरकारियो आ अचारो, तैपर सँ मिठाइओ आ माछो-मासु, तैपर दहीओ, सकरौड़ियो आ पनीरो चलैए।
नाटकक नअम आ अंतिम दृश्य। बाबा राजदेव आ पोती सुनीताक वार्तालाप, आखिर ऐ वार्तालापक की औचित्य? जगदीशजी सन सिद्धहस्त लेखक जानै छथिन जे बीसम आ एकैसम सदीक मिथिला पुरुषहीन भऽ चुकल छैक। यात्रीजीक कवितापर विचार करैत कवयित्री अनामिका कहै छथिन ‘बिहारक बेसी कनियाँ विस्थापित पतिगणक कनियाँ छैथ। ‘सिंदूर तिलकित भाल’ ओइ ठाम सर्वदा चिंताक गहींर रेखाक पुंज रहल छैक।
...भूमण्डलीकरणक बादो ई स्थिति अछि जे मिथिला, तिरहुत, वैशाली, सारण आ चंपारण यानी गंगा पारक बिहारी गाम सभ तरहेँ पुरुष विहिन भऽ गेल छैक। ...सभ पिया परदेशी पिया छैथ। ओइठाम। गाममे बँचल छैथ। वृद्धा, परित्यक्ता आ किशोरी सभ। एहेन किशोरी, जेकर तुरत्ते-तुरत बिआह भेलै या फेर नै भेल होए, भेलै ऐ दुआरे नै जे दहेज लेल पैसा नै जुटल हेतैक। ‘बिआह आ दहेजक ऐ समस्याक बीच सुनीताकेँ देखल जाए। एक तरहेँ ओ लेखकक पूर्ण वैचारिक प्रतिनिधि अछि। यद्यपि कखनो-कखनो राजदेव, कृष्णानंद आ यशोधर सेहो लेखकक विचार बेक्त करै छथिन। सुनीता, सुशीला आ राजदेव मिथिलाक स्थायी आबादी, आ घटक भाइक बीच रहबा लेल अभिशप्त पीढ़ी। कृष्णान्द सन पढ़ल-लिखल युवकक स्थान मिथिलाक गाममे कोनो खास नहि। आ लेखक बिना कोनो हो-हल्ला केने नाटकमे ऐ दुष्प्रवृत्तिकेँ राखि देने छैथ। जीवन आ नाटकक समानान्तरता ऐठाम समाप्त भऽ जाइ छै आ दूटा अर्द्धवृत्त अपन चालि स्वभावकें गमैत जुड़ि पूर्णवृत्त भऽ जाइत अछि।
रवि भूषण पाठक
करियन, समस्तीपुर।
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