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मेरे पापा डॉ .सतीश चन्द्र झा की डायरी से प्राप्त उनके उत्कृष्ट संस्कृत कवितायेँ संकलित कर मैं आप सबके समक्ष ला रही हूँ .उनकी कवितायेँ अमृत सदृश ही है . उनकी कविता -
"तारे त्वयि निरतम मम चेतः", माँ भगवती की स्तुति उनकी अनुपम कृति है .ऐसा प्रतीत होता है जैसे माँ भगवती स्वयं अवतरित होकर उनके मुख से सुनने आयी हों .
"सर्व स्वर्णै: निर्मिता या द्वारिका" .कृष्ण नगरी जा रहे थे उस समय उन्होंने इस कविता को द्वारिका जाने के मार्ग में ही लिखा था. ऐसा प्रतीत होता है गोविन्द स्वयं उनकी रचना को सुनने के लिए आतुर थे, संभवतः इसी कारण इस अद्भुत कविता की रचना पापा ने की होगी .पापा की डायरी में मात्र ११ कवितायेँ ही मिली मुझे .उनकी ये कवितायेँ एकादश रूद्र की तरह है .अमृत वाणी सदृश ही है .मैंने अपनी माँ मोहिनी झा से कहा कि माँ ११ कविता ही है, पता नहीं पापा और कहाँ रखे हैं अपनी रचनाएँ . मेरी माँ ने कहा - जितनी उनकी मिली है ,उतनी रहने दो , और अपनी कवितायें भी रख दो . माँ ने कहा उनकी हार्दिक इच्छा थी कि तुम दोनों मिलकर किताब लिखो .उनकी ख्वाहिश अधूरी ही रह गयी लेकिन इसमें अभी अपनी रचना डालोगी तो उन्हें अति प्रसन्नता होगी .आरम्भ कर दो .और उनकी सभी लिखी रचना को पूरी कर देना . माँ का आशीर्वाद प्राप्त कर मैं यह दुस्साहस कर रही हूँ . बड़गद के वृक्ष के नीचे छोटे - छोटे वृक्ष को भी स्थान मिलता है ,उसकी छाया से हर जीव को लाभ मिलता है ,उसी तरह मुझे पापा की रचना 'अमृत धारा' में मेरी भी रचना समाहित हो जाएगी ,यह विश्वास है .पाठकगण निश्चित रूप से संतुष्ट होंगे पापा की लिखी कविता से, साथ में मेरी भी कविता से . सुधीजन के संतोष से ही काव्य की रचना पूर्ण होगी ,कहा भी गया है -
"आ परितोषाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानं।
बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः॥
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