Description
बुंदेली में गीतगोविंद अभी तक आया नहीं था, जिसकी लहरी में विद्यापति, सूरदास और अष्टछाप के मूर्धन्य साहित्यकारों का अभ्युदय हुआ। हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग माने गए भक्तिकाल का एक बड़ा हिस्सा गीतगोविंद की भावभूमि पर ही अवलंबित है। गीतगोविंद में श्रंगार और भक्ति का जो मणिकांचन संयोग हुआ है, उसे किसी अन्य बोली या भाषा में उतारना कवि के लिए अत्यंत दुष्कर है। भक्ति के विविध प्रकार हैं। भक्ति श्रंगार की ही अन्य रूप है और इसीलिए गीतगोविंद मुख्य रूप से श्रंगारी रचना है। इसमें श्रंगार रस के जिन संचारी भावों का वर्णन हुआ है, उसे किसी व्यक्ति द्वारा अभिव्यक्त करना भी लोकरीति के अनुकूल नहीं समझा जाता। गीतगोविंद के कवि जयदेव ने सैकड़ों-हजारों वर्ष पूर्व अपने इष्ट राधा-कृष्ण के रास-रूप के अंग-प्रत्यंग, भाव-अनुभाव को जो वाणी दी, उसे आज का समाज प्रचलित लोकरीति के कारण व्यक्त नहीं करता। अनुवादक ने इस लोकरीति का निर्वाह अपने उपास्य-उपासक भाव में रहते हुए मर्यादापूर्ण शब्दों में व्यक्त करते हुए किया है। जहां यदि रचना के मूल भाव को संरक्षित करने की विवशता के चलते कहीं शब्दों में खुलापन आया भी है तो उसमें उपास्य-उपासक भाव की प्रतिष्ठा पूर्णरूपेण सुरक्षित बनी हुई है।
हिंदी गीत काव्य अपनी परंपरा के लिये संस्कृत साहित्य का ऋणी है । वैदिक साहित्य के पश्चात् हमें जयदेव के गीत गोविंदम् में सर्वप्रथम गीतकाव्य का उन्नत एवं परिष्कृत रूप दिखाई देता है । यह ग्रंथ विद्यापति की पदवल्लरी और सूरदास एवं कृष्णकाव्यधारा के कवियों और भक्तों का प्रेरक बना । यही नहीं, वर्तमान में जो स्त्री विमर्श मुख्यधारा का साहित्य बना हुआ है, उसका उत्स भी इस ग्रंथ में पूर्ण काव्यत्व और लालित्य के साथ दृष्टव्य है
कनकनिकषरुचिशुचिवसनेन ।
श्वसिति न सा परिजनहसनेन ।।
सखि या रमिता वनमालिना ।।७-६।।
सोनें सौ पीतांबर हरि कौ मुरली तानें दै रइ।
पिय के संग संभोग खों सुनकें सखियां तानें दै रइं ।
तानें और मसखरी सुन कें आली तौउ हरस रइ।
बनमाली के संगै रैकें का हम घाइं तरस रइं।।
मुझे विश्वास है कि इस कृति के परंपरागत गीत और संगीत की लहरियों में कविर्मनीषी न केवल भावनिमग्न होंगे, अपितु वे इसे समसामयिक साहित्यिक स्थापनाओं और विमर्शों के आलोक में भी परखेंगे ।
भौतिकवादी संस्कृति की चकाचौंध के बीच साहित्य में रमना जितनी बड़ी साधना है, उससे बड़ी साधना लोक-भाषा के साहित्य की साधना करना है, क्योंकि इसमें व्यापक ख्याति मिलना अत्यंत दुर्लभ होता है। साहित्यकार को एक छोटे से दायरे में सीमित रह जाने का क्षोभ रहता है, अतिसीमित संसाधनों में रहकर इसका प्रकाशन विरल होता है, क्योंकि क्षेत्रीय भाषा में गंभीर पाठकों का अभाव जो होता है। बुंदेली लोक भाषा में जो साहित्य रचा जा रहा है, उसके प्रोत्साहन और साहित्यकारों का उत्साहवर्धन करने वाले व्यक्ति और संस्थाएं इस अंचल में कार्य कर रही हैं।
राजनीतिक रूप से देश के दो बड़े प्रांतों में विभक्त, किंतु सांस्कृतिक इकाई के रूप में चिर-परिचित बुंदेलखंड की संस्कृति और समाज पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव अभी भी उतना नहीं पड़ सका है, जितना अन्य बोली-क्षेत्रों के समाजों पर। कदाचित् विकास के आधुनिक पैमानों पर खरा न उतरने के कारण ही इस क्षेत्र को पिछड़ा माना जाता है, अन्यथा बुंदेलखंड में पंजाब का-सा शौर्य, राजस्थान का-सा पुरातत्व और महाराष्ट्र की-सी कला-संस्कृति की समृद्धि दिखाई देती है। इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साहित्यिक पक्ष को अपने मूल रूप में संरक्षित और जीवंत करने का कार्य यहां के लोक अध्येता बिना प्रलोभन कर रहे हैं, जिनमें से एक बाबूलाल द्विवेदी हैं। लोक अध्येता होने की बुनियादी शर्त है कि वह लोक में रमण करे, बिना इसके उसका लोक अध्ययन वायवी और एकांगी होगा, उसमें प्रामाणिकता और अनुभूति की सघनता नहीं होगी। लोक का मूल स्वरूप आज भी गांव में ही देखा जा सकता है । एक जुलाई छियालीस को जन्मे श्री द्विवेदी शहरों में निवसित अपने पुत्र-पुत्रियों और उनके परिवारों के साथ न रहकर ललितपुर जनपद के लघु ग्राम छिल्ला (बानपुर) में रहकर ही साहित्य-साधना में लीन हैं। शायद ऐसे लोक अध्येताओं के लिए आधारभूत सामग्री के स्रोत आज भी ये गांव ही हैं। श्री द्विवेदी साहित्य के साथ-साथ कर्मकांड, दर्शन-आध्यात्म, पुराण-उपनिषद और आयुर्वेद चिकित्सा के भी मर्मज्ञ हैं। आपकी मनीषा नाना पुराण, निगमागम और स्वांतः सुखाय की तुलसी परंपरा की सतत प्रवाही है। आयुर्वेद से संबंधित आलेख धन्वंतरि इत्यादि पत्रिकाओं में तो बुंदेली और हिंदी भाषा के आलेख मनन, चिंतामणि, तुलसी साहित्य-साधना, सुधानिधि, कल्याण और उसके विशेषांकों में प्रकाशित हुए हैं। क्योंकि आपका प्रमुख कर्मक्षेत्र शुद्ध, सात्विक और संतोषी स्वभाव का पौरोहित्य है, पौरोहित्य में कोई अनुष्ठान और विधि क्यों संपन्न की जाती है, इसकी सचेष्टता के कारण आपने इस क्षेत्र में भी नई उद्भावनाएं की हैं। इसलिए संस्कृत भाषा का संस्कार स्वाभाविक रूप में आपकी भाषा-शैली में परिलक्षित होता है। उच्च शिक्षा की विभिन्न उपाधियों से आप वंचित रहे, पर स्वाध्याय और सत्संग से ज्ञान, वक्तृता, शोध और अनुभूतियों की जिन ऊंचाइयों को आपने उपलब्ध किया, उसे देखकर अच्छे पारखी और विद्वान आपकी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का लोहा मानते हैं।
इन पंक्तियों के लेखक के आप पिता हैं। यों, हो हर पुत्र को अपने पिता पर गर्व होता है या होना चाहिए, यह स्वाभाविक है किंतु मै अपने को विशेष सौभाग्यशाली मानता हूं, क्योंकि शिक्षा उपाधि संपन्न होने के बावजूद अद्यावधि मैं सर्वदा आपके दिए मार्गदर्शन से लाभान्वित होता रहता हूं। संस्कृत और उर्दू भाषा का जो तनिक संस्कार और हिंदी का किंचित् परिष्कार मेरे अंदर मौजूद है, उसमें सर्वप्रमुख योगदान आपका ही है।
आपके बुंदेली साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति से संबंधित विविध लोक विषयों पर लिखे गए आलेख और कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, अभिनंदन ग्रंथों में और आदिवासी लोककला अकादमी भोपाल से प्रकाशित हुए हैं। कविताएं और वार्ताएं दूरदर्शन केंद्र भोपाल और आकाशवाणी छतरपुर से प्रसारित हुईं हैं। पराशर संहिता का संस्कृत से हिंदी में किया गया आपका अनुवाद हिंदी में अप्राप्त साहित्य को उपलब्ध कराने की दृष्टि से स्तुत्य है। यह प्रकाशित भी हो चुका है।