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'नामवर सिंह का आलोचनाकर्म -एक पुनर्पाठ' पुस्तक के बारे में भारत यायावर कहते है कि नामवर सिंह की लिखित आलोचना की पुस्तकें काफी पुरानी हो गई हैं, फिर भी उसका गहन अवगाहन करने के बाद मैं यह स्पष्ट शब्दों में कह सकता हूँ कि उनमें आज भी कई नई उद्भावनाएँ और स्थापनाएँ ऐसी हैं, जिनमें नयापन है और भावी आलोचकों के लिए वे प्रेरक हैं। उनकी पुनर्व्याख्या और पुनर्विश्लेषण की काफी गुंजाइश है। नामवर सिंह ने अपने वरिष्ठ आलोचकों की तुलना में कम लिखा है, पर गुणवत्ता की दृष्टि से वे महान् कृतियाँ हैं। तथ्यपरक, समावेशी और जनपक्षधरता से युक्त उनकी आलोचना बहुआयामी है। उनकी आलोचना आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। पुरानी होकर भी उसमें ताजापन है। वह साहित्य की अनगिनत अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाती है और साहित्य-पथ में रोशनी दिखाती है।
नामवर सिंह की आलोचना का महत्त्व इसलिए भी है कि वह लगातार उनकी परिवर्तित मनोदशा का परिचायक है। वे विचारों के एक ही खूँटे से बंधे हुए कभी नहीं रहे। उनकी आलोचना में रस है। वे बड़े आलोचक इसलिए हैं कि ‘तत्त्वाभिनिवेशी’ और ‘सहृदय-हृदय चक्रवर्ती’ हैं। वे एक सजग आलोचक हैं और लगातार आत्मालोचन की प्रक्रिया से गुजर कर अपना परिमार्जन करते रहते हैं। इसलिए उनमें दुहराव बहुत कम है।
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