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बहुत कम कथा-कृतियाँ ऐसी होती हैं जो अपने यथार्थवादी स्वरूप एवं समाज की अनेक परतों को बारीकी से चित्रित करते हुए इतना कलात्मक, शैली और शिल्प के स्तर पर बहुबिध प्रयोगधर्मा एवं सर्जनशीलता का अनूठा स्वरूप रखती हों। प्रायः रचनाओं में यथार्थवादी आग्रह के कारण उनका रचनात्मक या साहित्यिक पक्ष गौण हो जाता है और वे यथार्थ का विवरण मात्र बनकर रह जाती हैं। दूसरी तरफ कलात्मक सृजनशीलता में यथार्थवादी पक्ष कमजोर हो जाता है। रेणु इन दोनों विरोधी स्वरूपों को अद्भुत संयम एवं धैर्य से साधते हैं। उनके रिपोर्ताज एक कथाकार के रिपोर्टर स्वरूप को उजागर करते हैं। ये कथा-वृतांत ‘आँखों देखे’ एवं कानों सुने हैं। तात्पर्य यह कि ये यथार्थ के साथ सीधे मुठभेड़ से निर्मित हैं। रेणु ने आँखों देखी घटनाओं को कथा कहने के देसज तकनीक के सहारे अभिव्यक्त किया है। उसमें अपनी परम्परा से प्राप्त आख्यान परम्परा भी है और उर्दू की किस्सागोई भी। दूसरी तरफ अपने रिपोर्ताजों को गीत एवं गाथा की अनेक पंक्तियों से सुसज्जित किया है। इससे उनमें एक खास प्रकार की लयात्मकता और संगीतात्मकता आ गई है। वे आधुनिक कविता एवं सिनेमा के गीतों को भी कहीं-कहीं अपने कथा-प्रसंगों को रोचक एवं अर्थ-व्यंजन बनाने के लिए प्रयोग करते हैं। इसके परिणाम स्वरूप एक नए तरह का पाठ्य सामने आया, जिसमें वर्णनात्मक गद्य और लयात्मक काव्य - दोनों का गुण समाहित है। कविता और गद्य की एकता, समय का अरैखिक बोध, व्यक्तिगत चरित्र की विशेषताओं को उजागर करते हुए सामुदायिक जीवन पर फोकस करना - रेणु के रिपोर्ताजों की सामान्य विशेषताएँ हैं, जिसमें विषमतामूलक समाज के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पहलू एक दूसरे से परस्पर गुंथे हुए हैं।
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