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उपन्यास ‘घृणा’ पूर्ण रूप से काल्पनिक है I इसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है I इस उपन्यास में, मैंने भारतीय जन-सामन्य से जुड़े सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरणिक मुद्दों को, समाज में उनकी वर्तमान स्थिति, रीतिरिवाज, परम्पराएं, किवंदितियाँ और घटनाओं से उनकी संबंधिता को, पात्रों के माध्यम से, वार्तालाप में पिरोने का प्रयास किया है I कहानी आरंभ गंगा से होती है, और समाप्त भी गंगा पर ही होती है I जून २०१३ में, केदारनाथ समेत गंगा व पूरा उत्तराखंड एक भीषण तबाही का गवाह बना I लाखों लोग काल की भेंट चढ़ गए I ऐसे लोग, जिन्होंने अपने प्रिय-जनों को इस तरह की प्रकृत-जनित (कुछ हद तक मानव निर्मित) दुर्घटनाओं में खो दिया या प्रत्यक्ष बिछड़ते देखा के प्रति मेरी गहरी संवेदना है I साथ ही उन सभी लोगों को मेरा यह उपन्यास समर्पित हैं, जो इस तरह की घटनाओं के बाद, अभी तक अपने घर नहीं पहुंचे हैं, और शायद ही कभी पहुंचे I
संभवतः कभी मानव ये समझ पाए कि, घृणा से कभी किसी का भला नहीं हुआ है I फिर चाहे घृणा मानव की मानव से हो, मानव की प्रकृति से हो या फिर प्रकृति की मानव से, नुकसान हर हालत में मानव का ही होगा I
मेरे पात्र, अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय कर पाते हैं, या नहीं, अथवा मुद्दों को गंभीरता से आगे ले जा पाते हैं, या नहीं, इसका निर्णय पूरी तरह से पाठकों पर है I आशा है, यह उपन्यास आपको पसंद आएगा और मुझे नए विषयों पर लिखने का प्रोत्साहन मिलेगा I
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