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स्वतंत्र भारत के सामने सबसे जटिल समस्या है - सांप्रदायिक दंगे । राही मासूम रज़ा के उपन्यासों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थापना है सांप्रदायिक दंगों के मूल कारण और परिस्थितियों को कलात्मक रूप में हमारे सम्मुख रखना, क्योंकि यह दंगे पूर्ण रूप से भारत की विकास प्रकिया को प्रभावित करते हैं । पारस्परिक संबंधों के बिगड़ने से देश की एकता डगमगा जाती है तथा बाह्य शक्तियों को घुसपैठ करने का अवसर मिल जाता है, जिससे देष के भविष्य के आगे एक प्रश्नचिन्ह लग जाता है । इन सांप्रदायिक दंगों के मूल में भारत का विभाजन रहा है । विभाजन की मांग मुस्लिम वर्ग की ओर से उठाई गई थी, इसलिए इसके दोषी भी वही माने गए, परंतु विडंबना यह रही कि जिन लोगों ने विभाजन को स्वीकार नहीं किया और जिनकी निष्ठा भारत के प्रति आज भी पूर्ण रूप से बनी हुई है, वह भी घृणा के शिकार हुए । उनको संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा । उनके देश-प्रेम अथवा राष्ट्र-भक्ति का कोई मूल्य नहीं रह गया । यह वर्ग दोहरे सदमे से टूट-सा गया । एक तो इस वर्ग के परिवारों का विघटन, दूसरा उसके सामाजिक मूल्यों का हृास । इस परिस्थिति को राही मासूम रज़ा ने लक्षित कर अपनी कृतियों के माध्यम से सांप्रदायिक दंगों के कारणों के रूप में इसी विडंबनापूर्ण परिस्थिति को उत्तरदायी माना है ।
अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों और समकालीन लेखन परंपरा में डॉ राही मासूम रज़ा का विशिष्ट स्थान है । उन्होंने अपनी लेखनी गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर समान अधिकार से चला कर हिन्दी साहित्य में एक नया तथा सशक्त प्रयोग किया है । प्रेमचन्दोत्तर कथाकारों में राही ने पूरी ईमानदारी और निर्भीकता से सामयिक समस्याओं और अपेक्षाओं की सार्थक अभिव्यक्ति पहली बार मुस्लिम परिवेश के संदर्भ में की है । वस्तुतः उन्होंने राजनैतिक चालों की गहन पड़ताल करते हुए समाज सापेक्ष तथा एक संवेदनशील कलाकार के रूप में हिन्दी कथा साहित्य को ऐसे महत्वपूर्ण आयाम दिये है, जो आज के लेखन संदर्भ मंे ऐतिहासिक महत्व रखते हैं ।
किसी भी कला-साहित्य की पात्र-परिकल्पना का नियंता कलाकार-साहित्यकार होता है । वही पात्रों के बाह्य एवं आंतरिक व्यक्तित्व का सर्जक होता है । पात्रों के व्यक्तित्व निर्माण में उपन्यासकार के विचार, दर्शन और भावनाओं का योग रहता है । राही के उपन्यासों मे ंउनकी समाजोन्मुख यथार्थवादी जीवन-दृष्टि पात्रों के रूप में प्रतिफलित हुई है । समाजोन्मुखी दृष्टि में जो वस्तु और कार्य हमें सुख या आनंद प्रदान करती है, वह वस्तु और कार्य हमें श्रेष्ठ या उपयोगी प्रतीत होती है । इसी प्रकार वही साहित्य श्रेष्ठ या उपयोगी होता है, जो मानव समाज के मंगल का संवर्धन करता है । राही ने मानव मूल्यों की संरक्षार्थ तथा समाज के बदलते हुए परिवेश को विकसित करने के लिए अपनी समाजोन्मुखी चेतना को प्रस्तुत किया । आधुनिक युग के हिन्दी उपन्यासों में इस प्रकार के सजीव यथार्थ और जाने पहचाने से पात्रों के सर्जक राही जी ने वास्तविक पात्रों में यथार्थ कल्पना का पुट दिया है । राही के औपन्यासिक पात्र ‘आधा गॉंव’ के फुन्नन मियां, ‘टोपी शुक्ला’ के टोपी, ‘हिम्मत जौनपुरी’ के हिम्मत, ‘ओस की बूॅंद’ के वजीर हसन, ‘दिल एक सादा काग़ज़’ के रफ्फन, ‘सीन: ’75’ के अली अमजद को एक कर दिया जाए, तो जो व्यक्तित्व निर्मित होगा, वह डॉ राही मासूम रज़ा ही होेंगे । पात्र-परिकल्पना के माध्यम से राही के साहित्य चिंतन और दर्शन के साथ-साथ उनकी उपन्यास-कला को भी सही अर्थों में समझने में सहायता मिली है ।
हिन्दी साहित्य में राही मासूम रज़ा ही एक ऐसे उपन्यासकार रहे हैं; जिन्होंने उपन्यास, काव्य और फिल्म लेखन का एक साथ लेखन-निर्वाह बड़े कौशल से किया है राही का मानना रहा कि आज साहित्य पाठी व्यक्तियों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है । इसके सर्वप्रमुख कारण है - महंगाई और मीडिया । भारत के आम आदमी को बढ़ती महंगाई में अपनी दाल-रोटी जुटाने में खून-पसीना एक करना पड़ता है । शेष वर्ग के व्यक्तियों को मीडिया अपने मंत्रमुग्ध कार्यक्रमों से पूर्णतः एक-दूसरे से अलग कर रहा है । उसे पुस्तकों के पारायण में कोई रुचि नहीं रही । मीडिया के माध्यम में हर आयु-वर्ग का व्यक्ति मोहित हुआ पड़ा है । इसी कारण राही ने फिल्मों के माध्यम से अपने कथ्य का प्रस्तुतीकरण किया ।
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