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दो शब्द
भारत में कोविड-19 वायरस, की महामारी फेज-2 की लहर ने देश में लाखों लोगो की सांसें रातों-रात छीन ली थी, महज़ दो माह के अंदर देश में कोहराम मचा दिया था। देश की कई उच्च-अदालतों ने इसे सरकारी ‘नरसंहार’ की संज्ञा तक दे डाली थी। आक्सीजन के अभाव में अस्पतालों से लेकर सड़कों तक लोगों ने दम तोडना शुरू कर दिया था। डाक्टर सरकारी कुव्यवस्था के सामने लाचार लोगों को मरते देख रो रहे थे। चाह कर भी किसी को बचाने में वे सब लाचार थे। मरने वालों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कई गुणा अधिक बताई जा रही थी। सरकारी दावे सारे के सारे छोटे पड़ने लगे। उनकी संख्या का अंदाज श्मशान घाटों से ले कर, गंगा में बहती लाशों तक चीख-चीख कर बोलने लगे। कुछ राज्यों में नदी के दोनों तटों पर मीलों तक लाशों का मेला लग चुका था।। लाशों को जलाने की लकड़ी भी नसीब नहीं थी। गांवों में और भी भयानक स्थिति थी।
लेखक ने कई गांवों का अध्ययन किया, राजस्थान से लेकर, बिहार तक सारी जगह एक ही स्थिति बयान हो रही थी।
लेखक ने एक काल्पनिक गाँव का चित्रण कर सभी उन दिनों की स्थितियों को अपने शब्दों में समेटने का छोटा सा प्रयास किया है, ताकि आने वाली पीढ़ी इस स्थिति को देख सके कि कैसा था भारत का 21वीं सदी।
इसके कुछ भाग को कई बार संशोधित किया हूँ एवं आज प्रकाशन की तिथि तक नोट में अपनी टिप्पणी दे दी हूँ। इस उपन्यास का अंग्रेजी संस्करण “Genocide-2021”भी निकाला हूँ ताकि गैर हिन्दी भाषी भी इसे पढ़ सके। सधन्यवाद, जयहिन्द!
लेखक - शंभु चौधरी
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