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श्रील प्रभुपादजीका उपदेशामृत (eBook)

श्रील प्रभुपादजीका उपदेशामृत
Type: e-book
Genre: Religion & Spirituality
Language: Hindi
Price: ₹100
(Immediate Access on Full Payment)
Available Formats: PDF

Description

[08 जनवरी, 2024 भारत के वृन्दावन में श्रील भक्तिमयूख भागवत गोस्वामी महाराज का तिरोभाव-दिवस था। श्रील भक्तिविज्ञान भारती गोस्वामी महाराज द्वारा 19 दिसंबर 2014 और 25 दिसंबर 2016 को उसी तिथि के उपलक्ष में परिवेषित कथा का भावानुवाद निम्नलिखित हैं। संपादकों का योगदान—सामग्री के प्रवाह को सुविधाजनक बनाने के लिए वर्गाकार कोष्ठकों में अतिरिक्त पाठ शामिल किया गया है।] आज विशेष तिथि है। यह श्रील भक्तिमयूख भागवत गोस्वामी महाराज की तिरोभाव तिथि है। श्रील भक्तिभूदेव श्रौति गोस्वामी महाराज से संन्यास लेने से पहले उनका नाम रूपविलास दास था। उनका साहित्यिक योगदान मठ में शामिल होने के बाद, श्रीरूपविलास दास ने संपादकीय विभाग में सेवा की। उन्होंने श्रील प्रभुपाद के तिरोभाव के उपरांत श्रील प्रभुपाद के ‘उपदेशामृत—प्रश्न और उत्तर’ को दो खंडों में संपादित और प्रकाशित किया। इस पुस्तक को पढ़ने से हर व्यक्ति को अपने सभी [भक्ति-संबंधी] प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे।

About the Author

श्रील प्रभुपाद का अवदान
(‘जैवधर्म’ ग्रंथ के ‘प्रस्तावना’ से उद्धृत)
(ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्रीश्रीमद्भक्‍तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज)
श्रील ठाकुर भक्तिविनोदने समग्र विश्वमें श्रीचैतन्यमहाप्रभु द्वारा प्रकटित धर्म-प्रचारकके मूल सेनापतिके रूपमें जिस महापुरुषको इस जगतीतल पर आविर्भूत कराया है, वे मदीय गुरुपादपद्म जगद्गुरु ॐ विष्णुपाद परमहंसकुल चूडामणि अष्टोत्तरशत श्री श्रीमद्भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुरके रूपमें समग्र विश्वमें सुपरिचित हैं। इन महापुरुषको जगत्‌में आविर्भूत कराना—श्रीमद्भक्तिविनोद ठाकुरकी एक अतुलनीय अभिनव कीर्ति है। साधु-वैष्णव समाज उन्हें संक्षेपमें ‘श्रील प्रभुपाद’ कहकर ही गौरव ज्ञापन करता है। मैं भी भविष्यमें उक्त परममुक्त महापुरुषके नामके स्थलपर ‘श्रील प्रभुपाद’ का उल्लेख करूँगा।
श्रील प्रभुपादने श्रील भक्तिविनोद ठाकुरके पुत्रके रूपमें या अन्वय रूपमें, यहाँ तक कि पारम्पर्य रूपमें आविर्भूत होकर समग्र विश्वमें श्रीमन् महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव द्वारा आचरित और प्रचारित श्रीमाध्व गौड़ीय वैष्णवधर्मकी अत्युज्ज्वल पताका उत्तोलन करके धर्मराज्यका प्रभूत कल्याण और उन्नति-साधन किया है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन, स्विटजरलैण्ड और बर्मा आदि सुदूर पश्चिमी और पूर्वी देशसमूह भी इन महापुरुषकी कृपासे वञ्चित नहीं हुए हैं। सारे भारतवर्ष और भारतके बाहर सारे विश्वमें चौंसठ प्रचारकेन्द्र—गौड़ीय मठ स्थापित कर श्रीचैतन्यवाणीका प्रचार किया था। साथ ही उन्होंने श्रील भक्तिविनोद ठाकुरके सारे ग्रन्थोंका प्रचार करके जगत् में अतुलनीय कीर्त्ति स्थापित की है। कालके प्रभावसे अर्थात् कलिकी प्रबलतासे गौड़ीय वैष्णव धर्ममें नाना प्रकारके असदाचार-कदाचार, असिद्धान्त-कुसिद्धान्त आदिका प्रवेश हो जानेके कारण तेरह अपसम्प्रदाय निकल पड़े थे। ये तेरह अपसम्प्रदाय हैं—
आउल बाउल कर्त्ताभजा नेड़ा दर्वेश साईं।
सहजिया सखीभेकी स्मार्त्त जाति गोसाईं॥
अतिवाड़ी चूड़ाधारी गौराङ्गनागरी।
तोता कहे ए तेरह सङ्ग नाहि करि॥
श्रील प्रभुपाद द्वारा श्रील भक्तिविनोद ठाकुरके ग्रन्थोंका प्रकाश और प्रचार होनेसे पूर्वोक्त अपसम्प्रदायोंकी अपचेष्टाओंका प्रचुर परिमाणमें ह्रास हुआ है। फिर भी दुःखका विषय है कि इतना होनेपर भी कलिके प्रभावसे आहार-विहार और ‘बाँचा पाड़ा’ अर्थात् जीवनबीमा (life insure) ही किसी-किसी धर्म-सम्प्रदायके प्रचारके प्रधान विषय हो गये हैं। वास्तवमें यह सब पशुवृत्तिका ही नामान्तर या पाशविक अनुशीलनका प्रसारमात्र है। हम पहले ही ऐसा कह आये हैं।

|श्रील प्रभुपादकी आरती
(श्रील गुरुदेव द्वारा लिखित ‘आचार्य केसरी श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी —तत्त्वसिद्धान्त और शिक्षा-समन्वित जीवनचरित्र’ से उद्धृत)
जय जय प्रभुपादेर आरति नेहारी।
योग मायापुर-नित्य सेवा-दानकारी॥
सर्वत्र प्रचार-धूप सौरभ मनोहर।
बद्ध मुक्त अलिकूल मुग्ध चराचर॥
भकति-सिद्धान्त-दीप जालिया जगते।
पञ्चरस-सेवा-शिखा प्रदीप्त ताहाते॥
पञ्च महाद्वीप यथा पञ्च महाज्योतिः।
त्रिलोक-तिमिर-नाशे अविद्या दुर्मति॥
भकति विनोद-धारा जल शङ्ख-धार।
निरवधि बहे ताहा रोध नाहि आर॥
सर्ववाद्यमयी घन्टा बाजे सर्वकाल।
बृहत्मृदङ्ग वाद्य परम रसाल॥
विशाल ललाटे शोभे तिलक उज्ज्वल।
गल देशे तुलसी माला करे झलमल॥
आजानुलम्बित बाहू दीर्घ कलेवर।
तप्त काञ्चन-बरण परम सुन्दर ॥
ललित-लावण्य मुखे स्नेहभरा हासी।
अङ्ग कान्ति शोभे जैछे नित्य पूर्ण शशी॥
यति धर्मे परिधाने अरुण वसन।
मुक्त कैल मेघावृत गौड़ीय गगन॥
भकति-कुसुमे कत कुञ्ज विरचित।
सौन्दर्ये-सौरभे तार विश्व आमोदित॥
सेवादर्शे नरहरि चामर ढूलाय।
केशव अति आनन्दे निराजन गाय॥
परमाराध्य श्रील गुरुदेवने अपने आराध्य गुरुदेव श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपादकी एक सर्वाङ्ग सुन्दर आरतिके पदकी रचना की है।
जब इसका श्रीगौड़ीय पत्रिकामें प्रकाशन हुआ, तब उसे पढ़कर श्रील प्रभुपादके सारे शिष्य, प्रशिष्य आनन्दसे झूम उठे। सभी लोग प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूपमें धन्यवाद देने लगे। यहाँ तक कि श्रीगौड़ीय मठोंके आचार्यगण अपनी-अपनी पत्रिकाओंमें श्रील गुरुदेवके नामको हटाकर प्रकाशन करनेका लोभ संवरण नहीं कर सके और तबसे श्रील प्रभुपादकी आरतिके समय श्रील गुरुदेवके द्वारा रचित इस आरति-कीर्तनका प्रचलन सर्वत्र हो गया।
जगद्‌गुरु श्रील प्रभुपादके आश्रित प्रमुख त्रिदण्डि संन्यासियोंमेंसे प्रपूज्यचरण त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिभूदेव श्रौती महाराज अन्यतम थे। वे वेद, उपनिषद्, पुराण, श्रीमद्भागवत एवं गीता आदि शास्त्रोंमें पारङ्गत थे। सारस्वत गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदायमें इनका बड़ा ही आदर था। उन्होंने प्रभुपादकी आरतिको पढ़ते ही अपने झाड़ग्राम मेदिनीपुर स्थित मठसे तत्क्षणात् श्रीधाम नवद्वीपमें श्रील गुरुदेवके पास उपस्थित होकर उन्हें इसके लिए बधायी दी—
“महाराज! बड़े आश्चर्यकी बात है, हमलोग बहुत दिनोंसे गुरुगृहमें एक साथ रहते आये हैं, किन्तु निकट रहकर भी आज तक हमलोग आपको पहचान नहीं पाये। आपके हृदयमें इतनी गम्भीर गुरुनिष्ठा-विशुद्ध भक्ति है, अब तक हम इसकी गन्ध भी नहीं पा सके। अब तक हमने आपको प्रजाओंके शासन एवं सांसारिक कार्यों में ही सुदक्ष समझा था, किन्तु हमारी सारी धारणाएँ भूल सिद्ध हो रही हैं। आज सौभाग्यवश आपकी इस अनुपम गुरुनिष्ठा एवं अतुलनीय भक्ति-प्रतिभा हृदयङ्गम कर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आपके हृदयमें श्रील प्रभुपाद स्वयं बैठकर आपके द्वारा शुद्धभक्तिके ऐसे सुन्दर, सुसिद्धान्तपूर्ण भावोंको प्रकाशित कर रहे हैं। आप धन्य हैं। हम आशा करते हैं कि भविष्यमें भी आप ऐसे-ऐसे अपूर्व कीर्तन पदों, स्तव-स्तुतियों, प्रबन्ध-निबन्धोंके द्वारा जगत्‌का अशेष कल्याण करेंगे।”
यहाँ इस आरतिके कतिपय पदोंके गम्भीर भावोंकी व्याख्या की जा रही है। ‘योगमायापुर नित्य सेवादानकारी’—गोलोकके सर्वोच्च प्रकोष्ठका नाम व्रज, वृन्दावन अथवा गोकुल है। उसीके सन्निकट एक और प्रकोष्ठ है, जिसे श्वेतद्वीप या नवद्वीप कहते हैं। इस नवद्वीपधामका हृदयस्थल श्रीधाम मायापुर है, जहाँ श्रीमती राधिकाकी अङ्गकान्ति और अन्तरङ्ग भावोंको अङ्गीकार कर स्वयं व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण श्रीशचीनन्दन गौरहरिके रूपमें अपने नित्य परिकरोंके साथ नाना प्रकारके भावोंका आस्वादन करते हैं। किसी-किसी विरले सौभाग्यवान जीवोंको ही महावदान्य श्रीगौरलीलामें प्रवेश करनेका सौभाग्य होता है। श्रीकृष्णलीलाकी नयनमञ्जरी ही श्रीगौरलीलाके श्रीभक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर हैं। इनके प्रणाममन्त्रमें इनका सिद्धस्वरूप अन्तर्निहित है—
श्रीवार्षभानवि-देवि-दयिताय कृपाब्धये।
कृष्ण-सम्बन्ध-विज्ञान-दायिने प्रभवे नमः॥
श्रीभक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर कृष्णप्रिया वृषभानुनन्दिनी श्रीमती राधिकाकी परम प्रियसखी, उन्नत उज्ज्वल मधुररसके मूर्तिमान विग्रह श्रीनयनमञ्जरी हैं। उनका आश्रय ग्रहण करनेपर ये करुणावरुणालय श्रीशचीनन्दन गौरहरिकी दुर्लभ नित्यसेवाको प्रदान करते हैं। इसी प्रकार जो लोग श्रद्धापूर्वक श्रीरूपानुग प्रवर श्रील प्रभुपादकी आरति करते हैं या आरति दर्शन करते हैं, ये उन सबको ऐसी दुर्लभ गौरसेवा प्रदान करते हैं।
श्रील प्रभुपादकी यह आरति अनुपम, अलौकिक तथा असाधारण है। तथा अन्य आरतियोंसे सर्वथा विलक्षण है। उन्होंने नवद्वीपके नौ द्वीपोंमें तथा भारत एवं विश्वके कोने-कोनेमें, प्रधान-प्रधान नगरोंमें, पहाड़ों एवं जङ्गलोंके बीचमें सर्वत्र ही अपने शिष्य-प्रशिष्यको, ब्रह्मचारी एवं संन्यासियोंको भेजकर उन स्थानोंमें प्रचारकेन्द्र स्थापनकर शुद्धभक्तिका प्रचार किया है, जिसके आकर्षक सौरभसे बद्ध और मुक्त सभी प्रकारके जीव आकृष्ट होकर शुद्धभक्तिमें तत्पर हुए हैं और हो रहे हैं। साधारण अर्चनमें प्रथम श्रीविग्रहोंकी धूपसे आरति की जाती है, जिसकी सुगन्ध श्रीमन्दिर तक ही सीमित रहती है, किन्तु शुद्धभक्ति प्रचाररूप धूपकी सुगन्ध सारे विश्वको आमोदित एवं आकृष्ट करती है। इस प्रकार शुद्धभक्ति प्रचाररूप धूपका एक अलौकिक वैशिष्ट्य है। यदि सरस्वती प्रभुपादने विश्वमें शुद्धभक्तिका प्रचार नहीं किया होता, तो सारा विश्व शुद्धभक्ति-लाभसे सर्वथा वञ्चित रहता और इनका कल्याण नहीं होता। पश्चिम बङ्गाल तथा भारतके अन्य प्रान्तोंके लोग भी शुद्धभक्ति अर्थात् रागानुग और विशेषतः रूपानुगभक्तिसे सर्वथा वञ्चित रह जाते। भक्ति प्रचारके लिए इन्होंने भक्तिग्रन्थोंका प्रकाशन एवं विश्व भरमें वितरणकी जो व्यवस्था की है, वह अश्रुतपूर्व एवं अदृष्टपूर्व है। इसीके द्वारा इन्होंने जगत्में भक्तिक्रान्तिकी नयी लहर पैदा कर दी। भारतसे सुदूर प्राच्य एवं पाश्चात्य छोटे-बड़े सभी देशोमें, छोटे-छोटे बालकों, नवयुवकों, नवयुवतियों तथा वृद्धों—सभीको वैदिक संस्कृतिमें रङ्गे हुए, हाथोंमें जापमालिका, अङ्गोंमें तिलक, सिरपर शिखा धारण किये हुए, गलियों-गलियोंमें मृदङ्ग, करतालकी तालपर नृत्य करते हुए, सङ्कीर्तन करते हुए देखा जा सकता है। उन स्थानोंमें श्रीराधाकृष्ण, श्रीगौरनित्यानन्द, श्रीजगन्नाथ-बलदेव-सुभद्रा आदिके विशाल-विशाल श्रीमन्दिर देखे जा सकते हैं। यह सब कुछ इन्हीं महापुरुषका अवदान है।
श्रीविग्रहके अर्चनमें धूपके पश्चात् प्रज्ज्वलित दीपसे आरति उतारी जाती है। इस विशेष अर्चनमें भक्तिसिद्धान्त ही दीप हैं। भक्तिसिद्धान्त दस प्रकारके हैं—(१) आम्नाय वाक्य—गुरु-परम्परागत मान्य वेद आदि शास्त्र ही (श्रीमद्भागवत) सर्वश्रेष्ठ प्रमाण हैं, (२) व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही परतत्त्व हैं, (३) वे सर्वशक्तिमान हैं, (४) वे अखिल रसामृतसिन्धु हैं, (५) मुक्त और बद्ध दोनों प्रकारके जीव ही उनके विभिन्नांश तत्त्व हैं, (६) बद्धजीव मायाके अधीन होते हैं, (७) मुक्तजीव मायासे मुक्त होते हैं, (८) चित्-अचित् जगत् श्रीहरिका अचिन्त्यभेदाभेद प्रकाश है, (९) भक्ति ही एकमात्र साधन है और (१०) कृष्णप्रीति ही एकमात्र साध्यवस्तु है। इन दस प्रकारके भक्तिसिद्धान्तरूप जड़ी-बूटियोंका रसनिर्यास ही घृत है, जिससे दीप प्रज्ज्वलित होता है। पाँच प्रकारके स्थायीभाव ही पञ्च महाप्रदीप हैं। इन प्रदीपोंमें शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य एवं मधुर—ये पाँच प्रकारके रस ही पाँच प्रकारकी शिखाएँ हैं।
विभाव, अनुभाव, सात्त्विक और व्यभिचारी—ये उन प्रज्ज्वलित शिखाओंकी किरणें हैं। इस अलौकिक पञ्चशिखा विशिष्ट प्रदीपकी महाज्योतिसे तीनों लोकोंका अज्ञान अथवा अविद्यारूप अन्धकार सदाके लिए दूर हो जाता है। इसके दर्शनसे कृष्ण विमुख जीवोंकी विमुखता दूर हो जाती है। विमुखता ही दुर्मति है और यही अन्धकार है। इस विलक्षण दीपके प्रभावसे यह अविद्या सदाके लिए दूर हो जाती है। वर्तमान युगमें इस दीपको जलाया किसने? इस भक्तिसिद्धान्त दीपको प्रज्ज्वलित किया है—श्रीश्रीलभक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुरने।
(३) धूप और दीपके अनन्तर जलशङ्ख द्वारा आरति होती है। भक्तिका विनोदन ही (श्रील भक्ति विनोद ठाकुर) शङ्ख है। वह शङ्खजल भक्तिभगीरथ भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा प्रवाहित रूपानुगभक्तिप्रवाहका निर्मल एवं सुगन्धित जल है। इस शङ्खकी धारा (प्रवाह) तैलधारावत् अविच्छिन्न गतिसे नित्य-निरन्तर प्रवाहित हो रही है एवं भविष्यमें भी प्रवाहित होती रहेगी अर्थात् कभी भी यह भक्तिधारा रुद्ध नहीं होगी। इस जलशङ्खकी धाराके छीटोंसे अखिल विश्वके सौभाग्यवान जीव अभिषिक्त होकर भगवत्-रससे अनुप्लावित होते रहेंगे।
(४) श्रीविग्रह-अर्चनमें घण्टाका बहुत महत्व है। धूप, दीप आदिके द्वारा आरति करते समय घण्टाका बजाना अत्यन्त आवश्यक है। इस विलक्षण आरतिमें सर्ववाद्यमयी घण्टा भी सर्वथा विलक्षण है, जो सदैव नित्यकाल बजता रहता है। वीर्यवती हरिकथा ही यह अलौकिक घण्टा है। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुरका सम्पूर्ण जीवन हरिकथामय रहा है। दूसरे शब्दोंमें श्रील सरस्वती ठाकुर हरिकथाके मूर्तिमान विग्रह थे। पल भरके लिए भी उनकी हरिकथा नहीं रुकती थी। अबोध बालकों, पेड-पौधों तकको भी देखकर इनकी हरिकथा अपने आप प्रवाहित होने लगती थी। उनकी हरिकथा इतनी ओजस्विनी एवं प्रभावशालिनी होती थी कि कोई भी श्रोता साथ-ही-साथ भक्तिसे अनुप्राणित हो जाता था।
अर्चनके साथ कीर्तन होना अत्यन्त आवश्यक है। श्रील जीव गोस्वामीने भक्तिसन्दर्भमें कहा है—‘यद्यप्यन्या भक्ति कलौ कर्त्तव्या तदा कीर्तनाख्या भक्ति संयोगेनैव।’ अर्थात् यदि कोई भक्तिके अन्य अङ्गोंका अनुशीलन करता है, तो उसे हरिसङ्कीर्तनके सहयोगके साथ ही करना चाहिये अन्यथा कलियुगमें सङ्कीर्तनके अतिरिक्त अकेले साधन किये जानेपर भी फलप्राप्ति नहीं होती। अतः अर्चनके साथ कीर्तन होना अत्यावश्यक है। सङ्कीर्तन भी नाम, रूप, गुण, लीला, कीर्तन आदिके भेदसे विभिन्न प्रकारका होता है। इनमेंसे नामकीर्तन सर्वश्रेष्ठ है—तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ नामसङ्कीर्तन। सङ्कीर्तनमें मृदङ्ग वाद्यका होना भी आवश्यक है। श्रील प्रभुपादके द्वारा प्रवर्तित आरतिमें बृहद्-मृदङ्गका योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मुद्रण-यन्त्र ही यह बृहद्-मृदङ्ग है। साधारण मृदङ्गकी ध्वनि बहुत सीमित होती है। किन्तु बृहद्-मृदङ्ग—मुद्रण-यन्त्रसे प्रकाशित भक्तिग्रन्थ विश्वके कोने-कोने में पहुँचकर साधकभक्तोंके हृदयमें प्रवेशकर उन्हें उन्मत्तकर हरिनाम-सङ्कीर्तनमें नृत्य कराने लगता है। इस बृहद्-मृदङ्गकी ध्वनि कभी भी बन्द नहीं होती, सदैव भक्तोंके हृदयमें उदित होकर उन्हें अनुप्राणित करती रहती है। इस बृहद्-मृदङ्गकी स्थापना करनेवाले प्रभुपादकी आरति जययुक्त हो।
परमाराध्यतम श्रील गुरुदेव इस आरति-कीर्त्तनमें ॐ विष्णुपाद श्रीश्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपादके अप्राकृत श्रीअङ्गोंके अलौकिक सौन्दर्यका वर्णन कर रहे हैं—यद्यपि मदीय परमाराध्यतम श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद श्रीमती राधिकाकी परमप्रिय श्रीनयनमञ्जरी हैं, किन्तु इस भौम जगत्‌में दीनतावश अपना नाम श्रीश्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रकाशकर अपने पूर्व नाम आदि स्वरूपको आच्छादितकर तृणादपि सुनीचका आदर्श दिखलाया है। इनके विशाल ललाटपर उर्ध्वपुण्ड्र तिलक सुशोभित हो रहा है। इनके सुन्दर गलेमें त्रिकण्ठी तुलसीमाला सदैव झलमल-झलमल करती रहती है।
आजानुलम्बित भुजाएँ, सुगठित सुन्दर अङ्ग प्रत्यङ्गयुक्त दीर्घ कलेवर, स्वर्णकान्तिको भी पराभूत करनेवाली श्रीअङ्गकान्ति इनके महापुरुष होनेकी घोषणा कर रही हैं। क्योंकि ये सब महापुरुषोंके विशेष लक्षण हैं। इनके ललित लावण्य अधरोंमें स्नेहकी मुस्कान सदा खेलती रहती है। उनके यतिधर्मके अनुसार अङ्गीकार किये हुए डोर-कौपीन, बहिर्वास एवं उत्तरीय आदि गैरिक वस्त्रोंकी उज्ज्वल ज्योतिने श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर एवं बलदेव विद्याभूषणके पश्चात् गौड़ीयगगनमें छाये हुए मेघोंके द्वारा उत्पन्न घने अन्धकारको समाप्त कर दिया है। इन्होंने देश-विदेशमें सर्वत्र ही शुद्धभक्तिकेन्द्रोंका स्थापन किया है। ये केन्द्र मानो भक्तिलताके पुष्पोंसे निर्मित श्रीराधाकृष्णके विलासकुञ्ज हैं, जिसके सौन्दर्य एवं सुगन्धसे सारा विश्व अमोदित हो रहा है। श्रीमायापुरधाममें श्रील प्रभुपादकी यह आरति नित्यकाल विराजमान है। उनके परमप्रिय नरहरि सेवाविग्रह प्रभु श्रील प्रभुपादको चामर वीजन कर रहे हैं। यह श्रीकेशव आनन्दमें विभोर आरति-कीर्तन कर रहा है।
श्रील गुरुदेवके द्वारा रचित इस सुललित आरति-कीर्तनका पद आज सर्वत्र गौड़ीय वैष्णवजन प्रीतिपूर्वक गान करते हैं।

Book Details

Publisher: श्रीभक्तिप्रज्ञान गौड़ीय वेदान्त विद्यापीठ प्रकाशन, हेसरघट्टा, बेंगलुरु-560088
Number of Pages: 150
Availability: Available for Download (e-book)

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श्रील प्रभुपादजीका उपदेशामृत

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