You can access the distribution details by navigating to My pre-printed books > Distribution
कोविड का प्रकोप अभी पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ था। आशिंक रूप से मानवता अभी भी इसके जाल में फंसी हुई थी । इसी कोविड काल में अंतर्मन में झांकने के एवम आत्ममंथन करने के असीमित अवसर प्राप्त हुए।
इन्हीं अवसरों में मन के कई मनके कविताओं के रूप में उभर कर आये। कागज कलम तो नहीं परन्तु मोबाईल में उतार लिए वो काव्य मनके।
आनन फानन में मेरी सोलहवीं काव्य पुस्तिका उभर आई। पहली पुस्तिका (पन्द्रहवीं) का शीर्षक था *जिज्ञासा* जो कि मेरी ज्येष्ठ पुत्री का नाम है।
सोचा, सोलहवीं पुस्तिका का नाम *मानवी के मनके* रखना अनुचित ना होगा। मानवी मेरी कनिष्ठ पुत्री का नाम है। व्यस्तता के कारण पुस्तक लंबे समय तक प्रकाशित नहीं कर पाया। क्षमा प्रार्थी हूं।
तो लीजिए प्रस्तुत है मेरी सोलहवीं काव्य पुस्तिका *मानवी के मनके*
*मानवी के मनके।*
कुछ कही, कुछ अनकही।
कुछ कही, पर रही अनकही।
कुछ अनकही, फिर भी कही।
जो कही, वो...
Currently there are no reviews available for this book.
Be the first one to write a review for the book मानवी के मनके.