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हम वक्त के मात्र साझीदार और ताबेदार ही नहीं हैं, वरन् उसके साथ हमारे मानवीय दायित्व भी हैं-संवेदना को सहेजने के, उसको बाँटने के और सही समय पर सही रूप में अभिव्यक्त करने के। जो मुझे चुभ रहा है, वह किसी और को भी (पाठक को) बड़ी शिद्दत के साथ चुभ रहा होगा। उसकी हल्की सी चुभन का एहसास आपको भी हुआ होगा।
इतवार की तलाश में 25 ललित निबन्ध हैं, समाज के 25 केरीकेचर सम्पूर्ण हाव-भाव और रंगों के साथ, पाठक को जोड़ते हुए। व्यंग्य लेखन तो एक अहिंसक आन्दोलन है, विकृति और विसंगतियों के खिलाफ, क्योंकि जो व्यवस्था अब जन्म ले रही है वह हर पाठक के मानसिक संसार में कहीं अटकती है, चुभती है, इसीलिये व्यंग्य अब धारदार हो चला है। लेखक आन्दोलन को जन्म नहीं दे सकता है, उसकी भावभूमि तो प्रस्तुत कर ही सकता है और विनम्रता से जागो! जागो रे भाई!! गुनगुना सकता है।...
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