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हम वक्त के मात्र साझीदार और ताबेदार ही नहीं हैं, वरन् उसके साथ हमारे मानवीय दायित्व भी हैं-संवेदना को सहेजने के, उसको बाँटने के और सही समय पर सही रूप में अभिव्यक्त करने के। जो मुझे चुभ रहा है, वह किसी और को भी (पाठक को) बड़ी शिद्दत के साथ चुभ रहा होगा। उसकी हल्की सी चुभन का एहसास आपको भी हुआ होगा।
इतवार की तलाश में 25 ललित निबन्ध हैं, समाज के 25 केरीकेचर सम्पूर्ण हाव-भाव और रंगों के साथ, पाठक को जोड़ते हुए। व्यंग्य लेखन तो एक अहिंसक आन्दोलन है, विकृति और विसंगतियों के खिलाफ, क्योंकि जो व्यवस्था अब जन्म ले रही है वह हर पाठक के मानसिक संसार में कहीं अटकती है, चुभती है, इसीलिये व्यंग्य अब धारदार हो चला है। लेखक आन्दोलन को जन्म नहीं दे सकता है, उसकी भावभूमि तो प्रस्तुत कर ही सकता है और विनम्रता से जागो! जागो रे भाई!! गुनगुना सकता है। आशा है यह गुनगुनाहट आपकी देहरी तक पहुँचेगी।
आप इनमें कुछ ढूँढिये मत, स्वतः ही आपको साहित्य का प्रवाह मिल जायेगा, आप प्रवाहित होकर देखिये। इनमें आपको घटनाओं की गन्ध मिलेगी, अतीत की स्मृतियाँ मिलेगी, उनकी रचनाओं के उल्लेख और उद्धरण मिलेंगे, इतिहास का झरोखा मिलेगा, संस्कृति की सुगन्ध मिलेगी, नई-नई शब्दावली और नये-नये ज्ञान के लहलहाते खेत मिलेंगे-जिनमें आप लटालोट हो जायेंगे, सौंधी मिट्टी की महक मिलेगी तो लोक की हलचल मिलेगी। नये फैशन, नई तकनीक, नये रीति-रिवाज, नये चलन की चहल-पहल में आप चहलकदमी कीजिये। इनमें पश्चाताप है तो खीझ भी है। झुंझलाहट है तो खिसियाहट भी है। सूचनाएँ हैं, जानकारियाँ हैं, तारीखें हैं तवारीखें हैं, कई देशों के नाम हैं, कई मुद्राओं की फेहरिस्त है। डाॅ. ओंकारनाथ चतुर्वेदी के हमसफर बनिये। उन्हें अपना गाइड बनाइये और शब्दों के संसार की सैर कीजिये। आज जब बाजारवाद, भूमण्डलीकरण और वैश्वीकरण के डाइनासोर अपने जबड़ों में मनुष्य को लीलने के लिए चैतरफा आक्टोपस की तरह पाँव पसार रहे हैं, दुनिया सिमट कर रंगीनी का भय फैला रही है, साहित्य और शब्द जिन्दगी और दुनिया हाशिये पर चले गए हैं। डाॅ. ओंकारनाथ चतुर्वेदी आपके सामने साहित्य का बायस्कोप लेकर बुला और लुभा रहे हैं। आप भौतिकता की चकाचैंध से तनिक आँखें हटाइये और चल दीजिये ओंकारनाथ चतुर्वेदी के अक्षरों की पगडण्डियों पर। वहाँ आपको सुकून का स्नान मिलेगा जिसमें नहाकर आप तरोताज़ा हो जायेंगे। जीवन संघर्ष में पुनः शिरकत करने के लिए।
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