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निश्चय ही मन अवतल है चञ्चल है वर्तिवान है सब कुछ मन का ही प्रपंच है मन है तो जगत है नहीं तो यह जगत नहीं है! नहीं है! नहीं है! मन वस्तुतः एक भूमि सामान है जिसमें प्रतिक्षण संकल्प और विकल्प निरंतर बनते और लुप्त होते रहते हैं। आत्मा और इन्द्रियों के मध्य अपना स्थान बनाये यह जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत, मनोवहा नाड़ी द्वारा मन अति सूक्ष्म आध्यात्मिक वायु के सहारे, सूत के धागों से बने जाल की भांति पूरी देह किसी नृप कि भांति भम्रण करता है, ब्रह्माण्ड में विचरण करता रहता है।
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