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पाठकों की बढ़ती रूचि और " कविता-कोष " के प्रति अकल्पित झुकाव को ध्यान में रखते हुए कविता के लेखक ने यह निश्चय लिया है कविताओं की प्रथम कड़ी लिए हुए यह पुस्तक "अविरल जीवंत दिग्धारा" का विमोचन किया जाएगा |
पेश हैं उसके कुछ मुख्य पद्यांश :
१)
एक अनकही-सी एक अनसुनी-सी रस-माधुरी
बिखरी थी मेरे ललाट और मस्तिष्क के ख्यालों पर
जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था मदमस्त
चहचहाते हुए उस धुन वाले पुराने संगीत पर
जब मैंने तुम्हे पाया था प्रकृति के उत्क्रष्ठ
हो रहे पुलकित नवीनतम संकलित और विद्यमान ...
२)
कितना भी हो जाऊँ तबाह पर हार नहीं मानूँगा,
किस्मत भी हो जाए चाहे खफ़ा पर हार नहीं मानूँगा |
पत्थरों पर चलकर ही जीना मैंने है सीखा,
अब तक जो किया है खुदका नहीं उधार लिया किसी का,
कितना भी बुलवाए ये झूठ मुझसे ज़माना,
पर इसके इस नियम का इख्तियार नहीं मानूँगा ...
३)
सुनसान होते आसमां में एक नई ललकार हो,
ग़मों के साए को काटती एक तेज़ तलवार हो,
उम्मीदों का झंडा अब न कहीं झुके कभी,
गुमनामी का फंदा अब न कहीं कसे कभी,
उगते सूरज से प्रतापी तुम नए फनकार हो,
निरंतर बहती विशाल नदी-सी ताबड़तोड़ झंकार हो ...
४)
मन में हर पल तुम्हारे विश्वास रहे,
छूने को चाहे हो दूर लेकिन आकाश रहे,
जीवन में तरक्की तुम्हारे कदम चूमे,
और हो कोई साथी तो वो तुहारा हमराज़ रहे,
पैगाम तो आएँगे कई पर ये याद रखना,
खुश रहना सदा चाहे दिल में कैसी भी आस रहे,
उदास हो कर कब कौन जिया है,
जीते जाना हर पल चाहे वो ख़ास रहे ...
५)
... आज, इस विजयदशमी पर मेरे भीतर का रावण जल गया,
और जो अचल ज्ञान मेरे भीतर था वह चल गया,
अब हर ओर राम के नाम के दिए जगमगाएँगे,
सारे गुण और सारे संस्कार भीतर से बाहर आएँगे,
प्रेम, करुणा, सौहार्द्र, रक्षा, मर्यादा से मैं नहा गया,
और बस एक राम-बाण मेरे भीतर के राम को जगा गया ...
अतः सभी पाठक-मित्रों से अनुरोध है कि अपने दिल को थामकर इन काव्य-रचनाओं को ध्यानपूर्वक पढ़ें | प्रस्तुत संकलन में जिन मित्रों एवं सहभागियों का साथ रहा है, उनके लिए मैं सदा ही आभारी रहूँगा |
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