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कानपुर से चल कर दिल्ली तक जाने वाली "दिल ही एक्सप्रेस" के कूपे में सवार होते हैं तीन रहस्यमयी चरित्र। तीनो एक दुसरे से अजनबी फिर भी एक दुसरे से समबद्ध। एक प्रौढ़ लाल जी जिसे केवल इटावा तक जाना होता है और जिसे अंकल कहलाने पर चिढ है। एक नवयौवना सुमति जिसके पास एक ख़ास बैग है जिसकी वो हिफाज़त अपनी जान से भी बढ़कर करती है। और एक नौजवान राहुल जिसने ओवर कोट पहन रखा है उसपर पर एक मफलर डाल रखा है। सर पर हैट जो आगे थोड़ी सी झुकी हुई है जिससे उसका चेहरा साफ़ नहीं दिख रहा है। आँखों पर काला चश्मा चढ़ा है। हर पल उसकी निगाह सुमति के बैग पर है। आखिर क्या है उस बैग में ? गन्स, गोली और गुलाब के बीच गिरती दीवारों और उठते पर्दों का यह नाटक हर पल दर्शकों को करवट बदलने पर मजबूर कर देता है।
यह नाटक अखिल भारतीय मौलिक नाट्य लेखन प्रतियोगिता में पुरस्कृत किया जा चुका है।
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