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“आस्था–स्नेह–गीता” — मन की उसी यात्रा का लेखा है। जहाँ एक सरल, स्वाभाविक मानवीय प्रेम धीरे-धीरे अलौकिक, शुद्ध और आध्यात्मिक प्रेम में परिवर्तित होता है। यह ग्रन्थ बताता है कि — प्रेम नष्ट नहीं होता, केवल रूप बदलता है। जो प्रेम पहले संसार में दिखता है, वही धीरे-धीरे प्रभु के स्वरूप में पहचाना जाता है। जिस विरह में आँसू थे, वही विरह स्मरण का पवित्र तीर्थ बन जाता है।
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