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जहाँ यह स्वर्णिम आवरण है, वहीं विद्या-अविद्या एकलय हैं, वहीं परा-अपरा एकलय हैं, वहीं आदि-अनंत एकलय हैं, वहीं जीवन-मृत्यु एकलय हैं, वहीं परमात्मा-आत्मा एकलय हैं, वहीं सत्य-संसार एकलय हैं, क्योंकि उपनिषदों की आर्ष वाणी है कि सत्य का मुख स्वर्ण से ढका हुआ है, जिसे सतत् रचनाशील कभी भास तो कभी माया कहते हैं। पुस्तक ‘सत्यमुखम्’ उसी दिशा की बानगी भर है।
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