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‘‘कभी-कभी आप यूँ ही कुछ लिख देते हैं, डायरी के पिछले पन्नों पर... कुछ समय पश्चात जब आप उसे पढ़ते हैं, तो एहसास होता है कि लिखते वक्त न जाने आपकी मनोदशा क्या होगी। कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ, कभी किसी पन्ने पर, डायरी में या मोबाइल में मैं दो-चार पंक्तियाँ लिख दिया करती थी। अच्छी बात यह होती रही कि उसे मैं अपनी माँ को भेज दिया करती थी, जिसका प्रतिफल है ‘यूँ ही चलते-चलते’। मेरी छोटी-छोटी क्षणिकाएँ इस पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो रही हैं, जो मेरे लिए परम हर्ष का विषय है।’’ - ऋचा प्रियदर्शिनी
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