You can access the distribution details by navigating to My pre-printed books > Distribution
पागल की गीता — एक अनकही दार्शनिक घोषणा
"पागल की गीता" महज़ एक कविता-संग्रह नहीं, बल्कि यह उस इंसानी अंतरात्मा की गहराई में उतरने की एक क्रांतिकारी कोशिश है, जहां धर्म, जाति, वर्ण, राजनीति और पाखंड का पर्दाफ़ाश होता है — और यह सब एक 'पागल' की नज़र से। इस किताब के हर शब्द में विद्रोह है, हर शेर में क्रांति की छुअन है और हर अध्याय में वह निडरता है जो किसी धर्मग्रंथ को चुनौती दे सकती है। यह काव्य-रचना न तो किसी एक संप्रदाय की है, न किसी एक धर्म की आवाज़ है — यह उस मानव की चीख़ है जो खुद को इंसान कहना चाहता है, पर उसे लगातार किसी न किसी खांचे में बाँध दिया जाता है।
यह रचना एक पागल के माध्यम से समाज में व्याप्त धार्मिक द्वंद्व, वर्ण व्यवस्था, आध्यात्मिक अहंकार और पाखंडी पंडितों की सत्ता को प्रश्नचिन्हित करती है। पागल, जो वास्तव में सबसे होशियार है, देवताओं के बीच तुलना कर रही भीड़ को चुनौती देता है। वह पूछता है — "क्यों लड़ते हो शिव और विष्णु को लेकर?" क्या धर्म का मर्म प्रेम नहीं? क्या ज्ञान का मार्ग शांति नहीं?
शिव और विष्णु को लेकर चल रही वाद-विवाद की सभा में जब यह पागल उठकर बोलता है — "हरि नाम से चलती दुनिया, शिव में अंत हो जाता है," तो पूरा सभागृह हतप्रभ रह जाता है। उसकी बातों में कोई परंपरागत धर्म नहीं है, बल्कि एक नई गीता है — पागल की गीता।
किताब यह भी कहती है कि कोई धर्म बुरा नहीं, पर धर्म के ठेकेदार ज़रूर घातक हो सकते हैं। जब वर्ण व्यवस्था पर सवाल उठाया जाता है — "क्या जन्म से कोई पंडित होता है?" — तब यह किताब उस बौद्धिक गुलामी पर वार करती है जिसे सदियों से स्वीकारा गया।
यह किताब हनुमान, राम, रावण के माध्यम से धर्म और कर्म के असली अर्थ को परिभाषित करती है। वह बताती है कि ज्ञान, शस्त्र और चरित्र में कौन ब्राह्मण है, कौन क्षत्रिय — और कौन केवल 'नाम' से कुछ है।
"पागल की गीता" उन पंडितों और मौलवियों पर व्यंग्य कसती है जो धर्म को हथियार बनाकर समाज को बाँटते हैं। पागल कहता है —
"मंदिर नहीं है बात विषय की, रग-रग में ज़हर क्यों भर डाला?"
"हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, टुकड़ों में अलग क्यों कर डाला?"
इस प्रश्न में वह शक्ति है जो हर पाठक के अंतर्मन को झकझोर देती है। यह केवल सवाल नहीं है — यह चुनौती है उस सोच को जो धर्म के नाम पर नफ़रत बोती है।
दार्शनिक विमर्श और मानसिक उथल-पुथल:
यह किताब किसी दर्शनशास्त्र की क्लास जैसी नहीं है, बल्कि जीवन के अनुभवों से निकली वह चीख़ है जो कभी 'पागल' कहकर अनसुनी कर दी जाती है। किताब यह बताती है कि कभी-कभी पागल ही सबसे समझदार होते हैं, क्योंकि वे उन सवालों को पूछने का साहस रखते हैं, जिन्हें बाक़ी दुनिया नज़रअंदाज़ करती है।
भाषा और शैली:,
"पागल की गीता" में प्रयोग की गई भाषा तीव्र, धारदार और क्रांतिकारी है। इसमें उर्दू, संस्कृतनिष्ठ हिंदी और भारतीय लोकचेतना की सुगंध मिलती है। इसकी पंक्तियाँ गूढ़ भी हैं और सरल भी — जैसे:
"जिस बात का मतलब नहीं, उसी बात पे लड़ जाते।"
"वर्ण हुए हैं चार मगर, क्या? जन्म से पंडित आता है?"
ये पंक्तियाँ पाठक को आत्मनिरीक्षण के लिए विवश करती हैं।
यह किताब क्यों पढ़ें?
अगर आप धार्मिक कट्टरता और पाखंड से त्रस्त हैं।
अगर आप धर्म, कर्म और ज्ञान पर गंभीरता से सोचते हैं।
अगर आप कविता में दर्शन, व्यंग्य, विद्रोह और प्रेम ढूंढते हैं।
अगर आपको 'गीता' को एक नए दृष्टिकोण से देखने की चाह है।
तो "पागल की गीता" आपके लिए है।
लेखक की दृष्टि:
सनी प्रजापति इस पुस्तक के माध्यम से उस मौन क्रांति को आवाज़ देते हैं जो हर जागरूक नागरिक के भीतर पल रही है। उन्होंने 'पागल' को माध्यम बनाकर वह सब कह डाला जो एक सामान्य व्यक्ति कहने से डरता है। उनकी कलम उस समाज को आईना दिखाती है, जो धर्म के नाम पर इंसानियत को कुचलता है।
सनी प्रजापति (जन्म 25 दिसंबर 1995, बिजौली, महेवा ब्लॉक, इटावा, उत्तर प्रदेश) एक भारतीय फिल्म पटकथा लेखक, निर्देशक, उपन्यासकार और लेखक हैं। गहन, विचारोत्तेजक कहानी कहने की कला और सामाजिक चेतना से ओतप्रोत विषयवस्तु के लिए जाने जाने वाले सनी, सिनेमा, साहित्य और रंगमंच जैसे कई माध्यमों में सक्रिय हैं। उनकी लेखनी मानव मनोविज्ञान, सामाजिक अन्याय और विशेषकर महिलाओं जैसी हाशिये पर खड़ी आवाज़ों के संघर्षों को केंद्र में रखती है। उर्दू और हिंदी पर उनकी कवि-सम्मत पकड़ ने उन्हें समकालीन भारतीय लेखन में एक साहसी और दूरदर्शी स्वर के रूप में विशिष्ट पहचान दिलाई है।
पागल की गीता (Paagal ki geeta)
Paagal Ki Geeta” is a haunting, poetic journey through the fractured psyche of society. Sunny Prajapati weaves raw emotion, philosophical introspection, and social critique into a visceral narrative. The book challenges norms and provokes thought, making it a bold and unforgettable read for those seeking meaning beyond surface reality.