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एक दिस बैंकक कर्जक सूदि, जइमे रौदी-दाही किछु ने होइ छै, आ दोसर दिस तीन गोरेक परिवारक खर्चक बीच मेवालाल फँसि गेला। ओहुना बुझै छिऐ जे साधारण मेशोमे हजार-डेढ़-हजार महिना एक बेकतीक खर्च भेल। से तँ भेल सोझे रतुका-दिनक भोजन, मुदा जलखैक संग जिनगीमे साइयो अनेक खर्च तँ बाँकीए अछि। खेती सहजे नष्ट भऽ गेल। दोसर कोनो उपाय मेवालाल नहि देख रहल छला। ऐठाम दुनू बात अछि, दुनूक उपायो अछिए। गामक जे पानिक रूप अछि, तैठाम उपाय एकभग्गू भऽ गेल अछि। आ दोसर, लोकक मन-बुधिकेँ ई पकैड़ नेने अछि जे शहर-बजारमे ओहिना लोककेँ मुँह-मंगा भेटैए। ओना, जीवन-यापन करैक साधन गामक अपेक्षा शहर-बजारमे बेसी भइये गेल अछि। हजारो रंगक कारोबार पसरल अछिए, जे गाममे नइ अछि...।
प्रश्न उठैत अछि, की गामकेँ ओहिना तरमुहाँ छोड़ि देबै आकि पितृ भूमि, मातृ भूमि, मिथिला भूमि बुझि विचारि किछु करबो करबै? की खिखिरक फलकल नाँगैर जकाँ सोझे फलकल छी आकि लुक्खीक नाँगैर जकाँ सुर्राइतो...
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