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मोही की ये रचना एक ऐसे प्रश्न का उत्तर है जो मोही के मन में उठा. मोही ने स्वयं से पूछा, ‘‘मोही तुम तो अपनी पीड़ा को कविताओं, गीतों, गज़लों, और रूबाईयों में अभिव्यक्त करके अपना मन हल्का कर लेते हो. रेखा तो ऐसा नहीं कर पाती, क्या तुम उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त कर सकते हो?’’
ये प्रश्न 13 जनवरी, 1998 को मोही ने स्वयं से पूछा. उस दिन से लेकर 30 जनवरी, 1999 तक मोही ने उस प्रश्न का उत्तर लिखा. वो उत्तर पाठकों के समक्ष ‘‘सत्य की परछाईयां’’ बनकर अवतरित हुआ है.
सत्य कभी नष्ट नहीं होता. प्रेम भी सत्य है. प्रेम कभी नष्ट नहीं होता.
ये माया भी मिट जायेगी
ये काया भी मिट जायेगी
ये आत्म तत्व है तेरी रेखा
जो साथ तुम्हारे आयेगी
प्रेम आत्मा की अनुभूति है. ‘‘सत्य की परछाईयां’’ इस आत्मा की अनुभूति से ओत प्रोत है.
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