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धर्म — एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही हमारे भीतर कई परतें हिलने लगती हैं।
लेकिन क्या हमने कभी रुक कर सोचा है कि धर्म वास्तव में है क्या?
हमने बचपन से जो जाना, जो सुना, और जो मान लिया —
क्या वही धर्म है?
या वो जो हमने कभी खुद से नहीं पूछा, बस मानते चले गए —
वही हमारी धारणाओं की जड़ बन गया?
"मेरी नज़र से धर्म" कोई परंपरा तोड़ने वाली किताब नहीं है।
यह कोई उपदेश देने वाला ग्रंथ नहीं है।
यह सिर्फ एक साधारण इंसान की असाधारण सोच है —
जो धर्म को बाहर नहीं, अंदर से देखना चाहता है।
यह किताब न तो आस्था का विरोध करती है,
न ही अंधविश्वास का प्रचार।
बल्कि यह पाठक को एक ऐसे रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करती है,
जहाँ वो अपने भीतर के सवालों से टकरा सके।
लेखक ने धर्म को किसी विशेष पंथ या पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं रखा है।
बल्कि उन्होंने उसे एक अनुभव, एक चेतना, और एक जीवंत खोज के रूप में देखा है।
यह किताब आपको जवाब नहीं देती —
यह आपको खुद से सवाल करने की ताक़त देती है।
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