पेशे से मार्केटिंग इंजीनियर होते हुए भी प्रफुल्ल देउस्कर अचानक ही आध्यात्मिकता की ओर मुड़े। सन् 1993 की एक दोपहर वे आम छुट्टी के दिनों की तरह लेटे हुए थे कि अचानक सबकुछ अत्यंत प्रकाशमय और सुनहरा हो गया। उन्होंने सोचा कि शायद वे कोई सपना देख रहे हैं, इसलिए अपने आप को जगाना चाहा, लेकिन वे विलक्षण आश्चर्य में पड़ गये जब उन्होंने पाया कि जगाने के लिए तो कोई था ही नहीं। स्वाभाविक रूप से वे घबरा गये और तभी वे अपने आप (?) में लौट आये। वह एक क्षणांश का अशरीरी अनुभव भी बहुत मुक्तिदायक, बहुत जागा हुआ और बहुत आनन्ददायक था। इस घटना के दो-तीन दिन बाद ही वे कुछ ऐसी किताबों के संपर्क में आये कि पूरी तरह ध्यान-साधना में उत्सुक हो गये। 94-95 तक वे ध्यान की षण्मुखी मुद्रा प्राप्त करने लगे। हालांकि ये उन्हे बाद में पता चला कि ध्यान की गहराई में जो मुद्रा वे प्राप्त करते हैं, योग की शास्त्रीय भाषा में उसे षण्मुखी कहा जाता है। विभिन्न तरह की चेष्टाओं के बाद आखिर “आर्ट ऑफ़ लिविंग फाउंडेशन” में उन्हें ठौर मिली, जहाँ उन्हें आध्यात्मिकता और सामाजिकता का स्वर्णिम संगम मिला।
प्रफुल्ल जी श्री श्री रविशंकर जी को सद् गुरू मानते हैं और आर्ट ऑफ़ लिविंग से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। व्यक्तिगत तौर पर वे चाहते हैं कि अधिक से अधिक लोग सत्य के लिए उत्सुक हों। यह पुस्तक भी उसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है।
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