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शैलबाला शतक भगवती पराम्बा के चरणों में वाक् पुष्पोपहार है। यह स्वतः के प्रयास का प्रतिफलन हो ऐसा कहना अपराध ही होगा। उन्होंने अपना स्तवन सुनना चाहा और यह कार्य स्वतः सम्पादित करा लिया। यह उक्ति सार्थक लगी-जेहि पर कृपा करहिं जन जानी/कवि उर अजिर नचावहिं बानी।" शैलबाला शतक के प्रारम्भ में माता के रौद्र रूप का अष्टक विलसित है किन्तु वहाँ क्रोध की आग नहीं करुणा का दूध बह रहा है- पंकिल की पीठ पर हँथोरि अम्ब फेरि फेरि बाँटा कर दुलार दीन बेटे की चिरौरी है। अँचरा की ओट में छिपे शिशु के मन को रखने के लिए भवानी का यह लीला विलास अपने आप में शैलबाला शतक की नसों में फड़कता हुआ शोणित है। यह शतक वह निर्माल्य है जिसे माँ ने अपने हाथों से अपने बेटे को खिलाया है और शेष बचे वात्सल्य को अशेष कर दिया है। यह शतक उन्हीं के चरणों में इस...
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