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लोगों के चेहरे से हंसी गायब होती जा रही है। इसका कारण मैं समझ नहीं पाता हूं। कमी कहां है, हंसाने वाले में या हंसने वाले या दोनों में ! आजकल एक नया प्रयोग देख रहा हूं। हास्य धारावाहिक में संवाद के पीछे से हंसने का साउन्ड दे दिया जाता है। अब दर्शक ना हंसे तो क्या हो ?
पहले हास्य-व्यंग्य खूब लिखे-पढ़े जाते थे। यह धीरे-धीरे कम होता गया। फिर लोग सिर्फ व्यंग्य से ही काम चलाने लगें। अब व्यंग्य भी कम लिखे जा रहे हैं।
मेरा मानना है कि हास्य-व्यंग्य आलेख पढ़ने के बाद यदि पाठक को समझने में दिमाग लगाना पड़े, तो यह बेकार है। बल्कि होना तो यह चाहिए कि भाषा इतनी सरल और आम बोलचाल की हो कि एक नव साक्षर भी आसानी से समझ ले। साथ ही हास्य-व्यंग्य के माध्यम से जो गंभीर से गंभीर बात लेखक कहना चाहता है, आसानी से पाठक तक पहुंच जाए। फिर तो गुदगुदी ना हो, यह हो ही नहीं सकता।
इस संग्रह में कुछ ऐसे ही प्रयोग करने का साहस किया हूं। व्यंग्य आलेख का ‘प्लॉट’ अपने आसपास के समाज से ही लिया हूं। सरल सपाट शब्दों में ठीक उसी तरह लिखने की कोशिश किया हूं, जिस तरह दो पुराने मित्र मिलते हैं तो ‘बकलोली’ किया करते हैं।
मेरे ‘दिमागी बकलोली’ की ही उपज है ‘एक नेता का कबूलनामा’।
Very nice
Super .... Excellent satire ... Everyone should read ... Full intertainment ...