राम रतन भटनागर (१९१४-१९९२) अपनी अनेक आलोचनात्मक पुस्तकों के द्वारा एक निष्पक्ष आलोचक के रूप में हिन्दी साहित्य में अपनी पहचान बना चुके हैं परन्तु एक कवि के रूप में उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध में छपी कतिपय पुस्तकें ही उनके कविकर्म को सामने रखती हैं। महाकवि निराला, पन्त, और महादेवी के सानिध्य की झलक उनकी इस दौर में लिखी कविताओं में हमें दिखती है। इसके बाद करीब बीस-बीस साल के अंतराल के बाद उनके कुछ संग्रह और प्रकाशित हुए। उनकी बहुसंख्य कविताऐं जिनमें इस अंतराल में हुए बदलाव और उनके स्वयं के बदलते लेखकीय सरोकार और शिल्प दिखाई देते हैं. अभी तक अप्रक्राशित ही रही हैं। इन कविताओं में अपनी पूरी जवाबदेही के साथ वे जीवन चेतना के बदलते स्वरूपों को हमारे सामने रखते हैं।
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