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"मुंडेर पर बैठी कवितायेँ "
कुछ ऊपर, कुछ नीचे,
कुछ दाएं, कुछ बाएं,
ताक रहीं थी मौका,
कि पुस्तक में घुस जाएं,
मुंडेर पे बैठी कविताएं।
जी हां.....
मुंडेर पे बैठी मेरी कविताएं।
चाह थी सब की बस एक ही,
कि....
येन, केन, प्रकारेण,
पाठकों तक पहुंच जाएं।
पुस्तक के माध्यम से,
उनके हृदयों में पैठ कर जाएं।
उन्हें हंसायें, रुलायें, गुदगुदायें,
उनका जीवन सुन्दर बनायें।
बस, फिर क्या था....
कलम उठा ली हमनें भी,
और कम्प्यूटर खोल लिया।
ताकि,
पुस्तक में समावेशित कर लूं,
*मुंडेर पे बैठी*
*मेरी कविताएं*
सुभाष सहगल
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