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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छंदसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वंदे वाणीविनायकौ॥ 1॥
अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छंदों और मंगलों की कर्त्री सरस्वती और गणेश की मैं वंदना करता हूँ॥ 1॥
भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यंति सिद्धाः स्वांत:स्थमीश्वरम्॥ 2॥
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप पार्वती और शंकर की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥ 2॥
वंदे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चंद्र: सर्वत्र वंद्यते॥ 3॥
ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की मैं वंदना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चंद्रमा भी सर्वत्र होता है॥ 3॥
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वंदे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥ 4॥
सीताराम के गुणसमूहरूपी पवित्र वन में विहार करनेवाले, विशुद्ध विज्ञान संपन्न कवीश्वर वाल्मीकि और कपीश्वर हनुमान की मैं वंदना करता हूँ॥ 4॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥ 5॥
उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करनेवाली, क्लेशों को हरनेवाली तथा संपूर्ण कल्याणों को करनेवाली राम की प्रियतमा सीता को मैं नमस्कार करता हूँ॥ 5॥
यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवांभोधेस्तितीर्षावतां
वंदेऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥ 6॥
जिनकी माया के वशीभूत संपूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से परे राम कहानेवाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ॥ 6॥
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वांत:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति॥ 7॥
अनेक पुराण, वेद और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध रघुनाथ की कथा को तुलसीदास अपने अंत:करण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा रचना में निबद्ध करता है॥ 7॥
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