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उन्नत समाजिक परिकल्पना में सांस्कृतिक सम्पन्नता के विशेष स्थान मानल जाइत अछि। मैथिली समाज के एहि दृष्टि स बहुत बेसी उन्नत मानल जाइया। मिथिला प्राचीन काल सS अपन सांस्कृतिक विरासत के अक्षुण्ण रखने अछि। लोकाचार बात-बिचार भाषा-लिपि पावनि-तिहार, गीत-नाद, चौल-उपराग आ बाकियो बहुत किछु छै। कोनो एहन विधा नई जाहि स हमर समाज बंचित रहल हो।
शहरीकरण और भौतिकतावादी एहि समय में सब से खराब स्थिति समाज में अही (सांस्कृतिक)पक्ष के भेल अइछ। समाज में व्याप्त आजुक होड में पलायनवादी प्रवृत्ति घर केने जा रहल अछि जहि सS सांस्कृतिक संरचना के उपेक्षा कयल जाइया। कतेको उदाहरण अईछ जे पावनि-तिहारक उपेक्षा करबा लेल आजुक नवका पीढ़ी विवश भS गेल छथि। एक मात्र छईठ पूजा के टेक रखने छवि बाहरो जा कS। बस। मधुश्रावणी, पंचमी, कोजगरा बरसाईत, सामा चकेबा, सन अनेको पावनि तिहार के बाहर रहनिहार व्यक्ति के परिवार में कोनो चर्चो नई भ पाबैया। अई कमी के हमरा सब के मिलिजुली क मिटेबाक प्रयास करबाक चाही।
जहाँ छी ततहिं मनाऊ।समाजक ईS सरस पक्ष अछि।
बाहर रहनाई आजुक विवशता अछि मानलौं मुदा अपना लोकाचार आS पावनि-तिहारक संग अपन भाषा और अपना लिपि के जीवन्त बना कS रखनाई बहुत आवश्यक अछि।
जरवनहि जागी तरवनहि भोर। आबो अगर हम सब मैथिल अपन दायित्वक प्रति सजग होई तS अपना सांस्कृतिक धरोहर के सिर्फ संरक्षणे नहिं संवर्द्धन से हो कS सकै छी।
श्रीमती उषा रानी झा जी रचित मैथिली गीत संगीत के समेटबाक प्रयास हम पूर्ण मनोयोग सँ केलहु अछि। प्रथम पुस्तक अछि तैं बहुत आस्वस्त नई छी जे हम एहि प्रयास में पूर्णतः सफल छी। पाठकगन ई निश्चित करता।
परमादरणीया श्रीमती झा जी के प्रति सहोदरक स्नेहवश हम आगुओ हुनकर कृति के सुधि पाठक के अनुरोध पर पुस्तकाकार देबाक प्रयास करब। एहि पुस्तकक त्रुटि जे सुधि पाठकगन इंगित करता हम आगू के संस्करण में सुधारबाक प्रयास करब।
अई किताब के नाम सँ स्वतः पता चलबाक चाही जे उषा जी के विचार और भाव के प्रतिबिम्ब अछि हुनक समस्त रचना। आध्यात्मिकता सS ओतप्रोत अछि सब लोक-गीत क सार। जाहि सS प्रत्येक भगवती गीत महेशवाणी एतेक ह्रदयग्राही यS सकह अछि। ईS उषा-बिम्ब हम समस्त मैथिल, मिथिला आ मैथिली के लेल सहर्ष समर्पित कS रहल छी,
सादर!
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