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"मृत्युभोज और समाज: वरदान या अभिशाप" लेखक ऋषभ कुमार द्वारा रचित एक अत्यंत संवेदनशील और विचारोत्तेजक सामाजिक उपन्यास है। यह उपन्यास भारतीय ग्रामीण समाज की उस कुप्रथा को उजागर करता है जिसे सदियों से परंपरा और धर्म का नाम देकर समाज के गरीब तबकों पर बोझ की तरह थोपा जाता रहा है — मृत्युभोज।
लेखक ने इस कहानी के माध्यम से यह सवाल उठाया है कि क्या मृत्युभोज वास्तव में श्रद्धांजलि है या यह केवल दिखावे की एक रस्म है? क्या यह परंपरा आज भी सार्थक है या फिर यह केवल एक सामाजिक अभिशाप बनकर रह गई है?
अजय, इस उपन्यास का मुख्य पात्र, साहस के साथ इस सामाजिक बुराई के खिलाफ खड़ा होता है। वह मृत्यु के बाद मृत्युभोज न करने का निर्णय लेता है और पूरे समाज से सवाल करता है। यह कहानी केवल अजय की नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति की आवाज है जो बदलाव लाना चाहता है लेकिन सामाजिक दबावों के कारण खामोश रहता है।
इस उपन्यास में लेखक ने पारंपरिक सोच और नई पीढ़ी की मानसिकता के टकराव को बहुत ही गहराई से चित्रित किया है। कहानी आपको समाज के उन पहलुओं से भी परिचित कराती है जिन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
यह उपन्यास आपको मजबूर करेगा कि आप भी अपने आसपास की परंपराओं और सामाजिक रीतियों पर सोचें, सवाल करें, और बदलाव की शुरुआत करें।
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