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हिंदी साहित्य के विकास में भक्ति काव्य एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में उभरा है, जिसने न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना को स्वर दिया, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषाई स्तर पर भी व्यापक प्रभाव डाला। मध्यकालीन समाज की जटिलताओं के बीच भक्ति काव्य ने संवाद की एक ऐसी परंपरा स्थापित की जिसमें ईश्वर से लेकर समाज तक के प्रश्न उठाए गए। यह काव्यधारा जनमानस की भावनाओं, आशाओं और संघर्षों की अभिव्यक्ति बन गई। इस edited पुस्तक "भक्ति काव्य और हिंदी साहित्य: संवाद और संप्रेषण" के माध्यम से एक प्रयास किया गया है कि भक्ति काव्य पर पुनर्विचार हो, उसे नवदृष्टि से देखा जाए और समकालीन विमर्शों की कसौटी पर परखा जाए।
यह पुस्तक न केवल भक्ति काव्य के काव्यात्मक सौंदर्य और भाषिक विशेषताओं की पड़ताल करती है, बल्कि उसकी संप्रेषणीयता, वैचारिकता, आलोचनात्मक स्वरूप तथा वर्तमान समय से उसके संवाद की संभावनाओं को भी रेखांकित करती है। समकालीन शोध प्रवृत्तियों, भाषायी विमर्शों, जातीय-सामाजिक संदर्भों और स्त्रीवादी तथा उपनिवेशविरोधी दृष्टिकोणों से भक्ति साहित्य को देखने के प्रयास भी इस संकलन में सम्मिलित हैं।
भक्ति काव्य के अनेक आयाम हैं—निर्गुण और सगुण परंपराएं, लोक और शास्त्र के मध्य पुल बनाने की कोशिशें, स्त्री और दलित स्वर की मुखरता, ईश्वर और मानव के मध्य संबंधों की नई व्याख्याएं—इन सभी को इस पुस्तक में विभिन्न लेखकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। यह विविधता ही इस संकलन की सबसे बड़ी शक्ति है।
इस पुस्तक के संपादन हेतु लेखों का चयन कुछ विशिष्ट मापदंडों के आधार पर किया गया है, जिनमें प्रमुख हैं:
1. विषय की नवीनता और प्रासंगिकता – लेख में उठाए गए प्रश्न समकालीन साहित्यिक या सामाजिक विमर्श से कितने जुड़े हुए हैं।
2. शोध की पद्धति और दृष्टिकोण – आलेख में प्रयुक्त अनुसंधान पद्धति की वैज्ञानिकता और निष्पक्षता।
3. भाषा और अभिव्यक्ति की स्पष्टता – लेखन शैली की गंभीरता के साथ-साथ उसकी संप्रेषणीयता।
4. मूल स्रोतों और संदर्भ ग्रंथों का उपयोग – शोध लेख की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के लिए आवश्यक सन्दर्भों का समावेश।
5. नवीन विचार एवं आलोचनात्मक दृष्टिकोण – लेख में प्रस्तुत तर्क कितने नवीन, सार्थक और आलोचनात्मक हैं।
प्रस्तुत लेख संकलन में चयनित सभी लेखकों ने भक्ति साहित्य के विविध पक्षों पर गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया है—कहीं तुलसीदास के रामचरित मानस में संवाद के तत्वों की चर्चा है, तो कहीं मीरा की कविताओं में स्त्री चेतना की तलाश। कुछ लेखों ने सूरदास के काव्य में लोकसंवाद की संभावनाओं को उजागर किया है, तो कुछ ने कबीर की रचनाओं में सामाजिक प्रतिरोध की प्रवृत्तियों को रेखांकित किया है।
इस पुस्तक में साहित्यिक विश्लेषण के साथ-साथ भाषिक विमर्श, सामाजिक न्याय, स्त्रीवाद, दलित दृष्टिकोण, उत्तर-औपनिवेशिक दृष्टि, वाचिक परंपरा और अनुवाद अध्ययन जैसे समकालीन विमर्शों को भी भक्ति साहित्य के संदर्भ में समेटा गया है। यह प्रयास इस उद्देश्य से किया गया है कि भक्ति साहित्य को केवल एक धार्मिक भावाभिव्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक सजीव सामाजिक और सांस्कृतिक संवाद के रूप में देखा जाए।
पुस्तक के सभी लेखकों का एक समान वैचारिक दृष्टिकोण नहीं है। विभिन्न लेखकों ने अपने-अपने अनुभवों, अध्ययन और दृष्टिकोणों के आधार पर लेखन किया है। संपादक और प्रकाशक का यह स्पष्ट मत है कि पुस्तक में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं, और किसी भी लेख में व्यक्त विचारों से संपादक या प्रकाशक की सहमति आवश्यक नहीं है; किसी प्रकार की वैचारिक या तथ्यात्मक त्रुटि की पूरी ज़िम्मेदारी लेखक की होगी।
पुस्तक को संकलित करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि किसी भी लेख में साहित्यिक चोरी (Plagiarism) न हो और मौलिकता को प्राथमिकता दी जाए। सभी लेखों को आवश्यकतानुसार सॉफ़्टवेयर एवं अन्य माध्यमों से जांचा गया है ताकि लेखों की मौलिकता सुनिश्चित की जा सके।
हमें यह कहते हुए संतोष हो रहा है कि इस संकलन में युवा शोधार्थियों से लेकर वरिष्ठ अध्यापकों और स्वतंत्र लेखकों ने भागीदारी की है। यह पुस्तकीय संवाद एक पीढ़ीगत संवाद भी है—जिसमें साहित्य की परंपरा, आलोचना की दृष्टि और भविष्य की संभावनाएं एक साथ देखी जा सकती हैं।
हमें विश्वास है कि "भक्ति काव्य और हिंदी साहित्य: संवाद और संप्रेषण" न केवल हिंदी साहित्य के अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी, बल्कि उन पाठकों के लिए भी मूल्यवान साबित होगी जो भक्ति साहित्य को एक जीवंत सामाजिक-सांस्कृतिक दस्तावेज़ के रूप में देखना चाहते हैं।
इस पुस्तक के निर्माण में जिन सभी विद्वानों, समीक्षकों, तकनीकी सहयोगियों और परामर्शदाताओं का सहयोग प्राप्त हुआ है, हम उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। विशेष रूप से उन लेखकों का, जिन्होंने समयबद्ध लेखन और संवादशील दृष्टिकोण के साथ इस प्रयास में भागीदारी निभाई।
हमें आशा है कि यह पुस्तक भक्ति साहित्य पर नवचिंतन को प्रोत्साहन देगी, नई बहसों को जन्म देगी, और एक समकालीन साहित्यिक विमर्श की जमीन तैयार करेगी, जिसमें संवाद और संप्रेषण के मूल तत्व सतत सक्रिय रहें।
– संपादक
डॉ. राम आशीष तिवारी
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