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व्यंग्य रचनाएँ हमारे भीतर गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने भी ला खड़ा करती हैं जिनसे हम आए दिन बावस्ता होते हैं। व्यंग्य लेखन समाज की पीड़ा को अभिव्यक्ति भी देता है और समाज को उद्वेलित करके उसे झिंझोड़ता भी है। असली व्यंग्य वही है जो अंतस को गहरे तक स्पर्श करे।
हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की एक पुरानी परिपाटी रही है और संत साहित्य में भी व्यंग्य का पुट देखने को मिलता है। “कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई चुनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांगि दे क्या बहरा हुआ खुदाय”,
संत साहित्य में कबीर की व्यंग्य क्षमता का प्रमाण है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले और बाद में भी हमारे देश में प्रचुर व्यंग्य लेखन हुआ है। हरिशंकर परसाई की रचनाएँ आज़ाद भारत का सृजनात्मक इतिहास कही जाती हैं। व्यंग्य को आज सामाजिक सर्तकता के हथियार के अलावा समाज के आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में भी देखा जा रहा है।
इस लिहाज़ से देखा जाए तो जाने माने व्यंग्यकार मुरली श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह- “नजर लग जाएगी " गज़ब की मारक क्षमता से लैस है। इसकी अधिकतर व्यंग्य रचनाएँ अपने लक्ष्य को भेदने में सक्षम मिसाईलें हैं, जिनके प्रहार से बच पाना नामुमकिन है। मुरली श्रीवास्तव ने एक कथाकार के रूप में
तो अपनी पुख़्ता पहचान बनाई ही है, लेकिन व्यंग्य को अपना औज़ार बनाकर कई चुटीली, नुकीली व भ्रष्ट तंत्र को तिलमिलाती रचनाएँ भी पाठकों को दी हैं। गुरमीत बेदी
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