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इमाम हुसैन ने ख़्वातीन को साथ लिया था ता कि करबला की दास्तान बयान करने वाले मौजूद रहें। उन्होंने इमाम जैनुलआबेदीन को अलालत के बावजूद साथ लिया ताकि वाक़या करबला को एक चश्म दीद मौरिख़ दस्तयाब रहे। उन्होंने ने अपनी क़ब्रे बनाये जाने के लिये ज़मीन खरीदी और उन्हीं को हबा कर दी जिन से ख़रीदी गयी थी। मगर उन्हें यह वसीयत कर दी कि जब मलाअना अपने कस्तगान को दफ़न करके चले जाये तो शहीदों की क़ब्रें बना दी जायें जो ज़ायरीन क़ब्रों की ज़ियारत करने को आये उन्हें इस की निशानदेही कर दी जाये और इन की तीन दिन तक मेहमानी की जाये। इन वसीयतों में यह हसरत पिन्हा नज़र आती है कि करबला का वाक़या अपनी सारी तफ़सीलात के साथ ता अबदाइला आबाद इंसानी हाफ़िज़ में महफूज़ रहे यही नहीं बल्कि रवायतों से यह पता चलता है कि जब इमाम मज़लूम रूख्सत आखिर के लिये खै़मा...
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