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इस पुस्तक में भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली की उस गहरी खामी को उजागर किया गया है, जहाँ निर्दोष लोगों को झूठे मामलों में फँसाकर वर्षों जेल में सड़ा दिया जाता है — और फिर न्यायालय द्वारा निर्दोष करार दिए जाने पर भी न कोई क्षमा, न कोई मुआवजा, न ही कोई पुनर्वास।
यह किताब गलत दोषसिद्धि और गलत अभियोजन से पीड़ित उन हज़ारों नागरिकों की आवाज़ है जिन्हें वर्षों तक सलाखों के पीछे पीड़ा सहनी पड़ी, केवल इसलिए क्योंकि राज्य की प्रणाली—पुलिस, अभियोजन और न्यायपालिका—ने अपने दायित्व निभाने में असफलता दिखाई।
पुस्तक में ऐतिहासिक और समकालीन केस स्टडीज़ (जैसे माचल लालुंग, विष्णु तिवारी, नंबी नारायणन, अक्षरधाम केस आदि) के माध्यम से बताया गया है कि कैसे न्याय की तलाश अक्सर अन्याय की सजा बन जाती है।
यह एक कानूनी दस्तावेज़ है, एक नैतिक आह्वान है, और एक नीति-संशोधन की माँग है—जिसमें न्यायिक, विधायी और कार्यकारी सभी अंगों को जवाबदेह ठहराया गया है।
इस पुस्तक में 24 से अधिक अध्याय हैं, जिनमें अंतरराष्ट्रीय कानून, विधि आयोग की रिपोर्ट संख्या 277, प्रस्तावित क्षतिपूर्ति विधेयक 2025, NCRB आँकड़ों का विश्लेषण, और पुनर्वास के प्रारूप भी शामिल हैं। यह एक गंभीर शोधात्मक और संवेदनशील पुस्तक है जो भारत में न्याय के वास्तविक चेहरे से पाठकों को परिचित कराती है।
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