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वर्तमान समाज में उपभोक्तावाद की पल्लवित होती संस्कृति में झूठे दिखावे और दम्भ के चलते हम लोगों ने अपने जीवन मे साधनों को साध्य में बदल लिया है और अपनी इन्हीं ख्वाहिशों को पूरा करने की होड़ में लग गये हैं। हमें इन्ही कृत्रिम आवश्यकताओं अथवा तृष्णाओं की पूर्ति में सही-गलत का भी भान नहीं है, उचित-अनुचित किसी भी प्रकार से हमें अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी है, और तो और हम अनुचित मार्ग अपना कर भी उसे न्यायोचित बना लेने की पुरजोर कोशिश करते हंै जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
मेरी इस कहानी की मुख्य पात्र प्रेरणा भी इसी लोलुपता के चक्कर में क्या कुछ कर गई और फिर क्या हुआ जानने के लिए पढ़िये
‘‘सरकारी नौकरी’’।
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