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मध्यमवर्गिय परिवार के मूखिया रतनलाल ने अपने बेटे मोहनदास को खूब पढ़ा लिखा कर काबिल इन्सान बनाया यहां तक कि इकलौता होने के बाद भी उसकी इच्छा के चलते अमरिका तक भेज दिया। इस सबके पिछे अपने बेटे मोहनदास को इस आधुनिक, उपभोक्तावादी समाज की प्रस्पिर्धा में आगे देखने की चाह भी रतनलाल के मन में भी रही होगी। इस भाग दौड में उम्र के सातवें दशक में एक रात अचानक रतनलाल की मौत हो जाती है। रतनलाल का मुह लगा नौकर इस बात की खबर अमरिका में रह रहे रतनलाल के बेटे मोहनदास को देता है। अपनी व्यस्ततमक जिवनशैली में भारतिय रिति-रिवाज दाहसंस्कार आदि की परेशानी मोहनदास को अपने पिता की मौत के दुख से अधिक लगती है और इससे बचने के आसान तरिके में मोहनदास अपने पैसो के बल पर दाहसंस्कार का काम एक इवेन्ट मेनेजमेन्ट कम्पनी को दे देता हैै। ऐसे में मानविय मूल्यों और भारतिय संस्कृति के अनुसार मनुष्य के अन्तिम संस्कार के इस नववाचार को हास्य व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है साथ ही अन्धाधुनिकरण और मानविय मूल्यों के अन्र्तध्वन्ध को प्रदर्शित करने की कोशिश की गई है।
लोकेश पालीवाल का शाही फ्यूनरल पढ़ने के बाद मज़ा आया| लेखक ने कहा तो है माध्यम वर्गीय मोहन लाल परन्तु नाटक का नाम शाही फ्यूनरल रखा ये भी एक व्यंग ही है आज की इस अंधी भागती दुनिया का कि इसमें हम चाहते क्या है ये पता नहीं है | दूसरों के देखा देखी अपने ऊपरी सम्मान को दिखाने के लिए अपने बच्चों को अच्छा पड़ा लिखा कर मोटी तनख्वाह के लालच में या बच्चे की ख्वाइश को पूरा करने विदेश भेज देते है | इन बुजुर्ग का जीवन तो अकेले ही दर्द को झेलते गुजरा परन्तु मरने के बाद भी उनका क्रिया कर्म करवाने के लिए एक इवेंट कंपनी को ठेका देने का विषय अच्छा लगा | उसके बात जो नाटक में हास्य पैदा किया गया वह काफी मजेदार भी था और कुछ सोचने को मजबूर भी करता है |इवेंट कंपनी द्वारा जैसे तैसे क्रिया कर्म करने की तैयारी में निर्देशक के पास भी बहुत कुछ करने को है और पत्रो के पास भी | नाटक मजेदार है हास्य व्यंग से भरा हुवा , मंच पर दर्शको को आनंद दिलवाएगा |
अशोक जैन "मंथन"
Re: Shahi Funeral (e-book)
नए मौलिक विचारों के अकाल के इस युग में लेखक की संकल्पना जिसमे ''व्यावसायिक हितों को मनुष्य की मृत्यु शय्या तक साधे रखना पूंजीवाद का एक नया आयाम है'' विचार को अत्यंत मनोरंजक रूप से परिभाषित एवं परिलक्षित करने के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं l साथ ही यह हास्य व्यंग ये सोचने पर मजबूर करता है कि बढ़ता पूंजीवाद आत्मा ,संवेदना ,मानवीयता से परे नश्वर शरीर की '' मार्केटिंग एवं प्रेजेन्टेशन '' को अधिक महत्त्व दे रहा है l