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“कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें, सिलसिले बातों के कुछ ऐसे चलें,गुज़रे वक़्त हमारी बातों की धूप-छाँव में, फिर सब अपने अपने घर को चलें”एक वो ज़माना था और एक ये ज़माना है, उसमें भी इंसान थे, इसमें भी इंसान हैं | बस उस ज़माने में “इंसान” थे, अब आधे पत्थर हैं | कहने का तात्पर्य यह कि हम अब भावनाओं को छोड़ चुके हैं और मशीनी ज़िन्दगी जी रहे हैं | इस किताब में उन्हीं कुछ बातों को दर्शाया गया है
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