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नेताजी सुभाष 17 जनवरी 1941 की रात भारत से निकले थे और 18 अगस्त 1945 के दिन अन्तर्धान हुए थे। इन दो तिथियों के बीच का कालखण्ड प्रायः चार वर्षों का है। इस दौरान नेताजी से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े बहुत-से ऐसे घटनाक्रम हैं, जिनके बारे में हम आम भारतीय- खास तौर पर देश की किशोर एवं युवा पीढ़ी वाले- बहुत कम जानते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर इस पुस्तक की रचना की गयी है।
1941 से पहले के (उनसे जुड़े) कुछ घटनाक्रमों को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है- भूमिका के तौर पर। इसके विपरीत, 1945 के बाद के घटनाक्रमों को विस्तार दिया गया है। साथ ही, कुछ ‘सम्भावित’ घटनाक्रमों का भी जिक्र किया गया है। ऐसा इसलिए किया गया है कि पाठकगण उपलब्ध तथ्यों, साक्ष्यों, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों एवं सम्भावनाओं को जानने के बाद स्वयं विश्लेषण करते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश करें कि आखिर नेताजी का क्या हुआ होगा।
पुस्तक की भाषा शैली ऐसी रखी गयी है कि पढ़ते समय लगे कि घटनाएं हमारे समय में घट रही हैं- ऐसा न लगे कि हम सुदूर इतिहास की बातों को जान रहे हैं। कहीं-कहीं ‘रिपोर्ताज’-जैसी शैली का उपयोग किया गया है। ऐसा किशोर एवं युवा वर्ग के पाठक-पाठिकाओं को ध्यान में रखकर किया गया है, जो ‘थ्रिलर’ पढ़ना पसन्द करते हैं। वैसे, पुस्तक सबके लिए है।
एक बात और। 1943 में सिंगापुर में भारतीय नेताजी के स्वागत में जो गीत गाते थे, उसकी एक पंक्ति है- ‘है नाज़ जिसपे हिन्द को, वे शाने-हिन्द आ गये’- इस लिहाज से पुस्तक का शीर्षक “शान-ए-हिन्द सुभाष” होना चाहिए था, पर किसी कारणवश इसे “नाज़-ए-हिन्द सुभाष” रखा जा रहा है।
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